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1 परिवर्तना - परिचित विषय को स्थिर रखने के लिए
बार-बार दोहराना। 1 अनुप्रेक्षा - जिस सूत्र की वाचना ग्रहण की है उस सूत्र
पर तात्विक दृष्टि से चिन्तन करना। धर्मकथा - स्थिरीकृत और चिंतित विषय का उपदेश
करना। यहां यह भी स्मरण रखना है कि स्वाध्याय के क्षेत्रों में इन पांचों अवस्था का एक क्रम है, इनमें प्रथम स्थान वाचना है। अध्ययन किये गये विषय के स्पष्ट बोध के लिए प्रश्नोत्तर के माध्यम से शंका निवारण करना इसका क्रम दूसरा है। क्योंकि जब तक अध्ययन नहीं होगा, तब तक शंका आदि नहीं होगी। अध्ययन किये गये विषय के स्थिरीकरण के लिए उसका पारायण आवश्यक है। इससे एक ओर स्मृति सुदृढ़ होती है तो दूसरी ओर क्रमश: अर्थ बोध में स्पष्टता का विकास होता है। इसके पश्चात् अनुप्रेक्षा या चिंतन का क्रम आता है। चिंतन के माध्यम से व्यक्ति पठित विषय को न केवल स्थिर करता है अपितु वह अर्थ बोध की गहराई में जाकर स्वत: की अनुभूति के स्तर पर उसे समझने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार चिंतन एवं मनन के द्वारा जब विषय स्पष्ट हो जाता है तब व्यक्ति को धर्मोपदेश या अध्ययन का अधिकार मिलता है।
स्वाध्याय के नियम : किसी भी कार्य को सही रूप से सम्पादित करने की प्रक्रिया होती है। अगर वह कार्य उसी प्रक्रिया के अन्तर्गत किया जाये तो वह हमें अधिक फल देने वाला होगा ठीक इसी प्रकार स्वाध्याय के भी कुछ नियम हैं। अगर इन नियमों को अपनाकर स्वाध्याय किया जाये तो वह निश्चित ही परम सिद्धि की प्राप्ति में सहायक है।
निरन्तरता : स्वाध्याय प्रतिदिन नियमानुसार किया जाना चाहिये स्वाध्याय में किसी प्रकार का निक्षेप नहीं होना चाहिये। निरन्तरता से हमारी स्मरण शक्ति प्रखर बनती है।
एकाग्रता : हमारा मन संसार के चक्रव्यूह में इधर-उधर भटकता रहता है जब तक हमारा मन चंचल बना रहेगा तब तक स्वाध्याय के परम आनंद की अनुभूति प्राप्त नहीं हो सकती अत: आवश्यक है कि स्वाध्याय एकाग्रतापूर्वक किया जाये।
सद्साहित्य का चयन : वर्तमान में बाजार में ऐसी पुस्तकें बहुतायत से उपलब्ध हो रही हैं जो मानसिक विकारों को जन्म देने वाली है अतएव हमें स्व-विवेक से सदसाहित्य का चुनाव करना चाहिये ताकि स्वाध्याय उचित ढंग से किया जा सके।
स्वाध्याय का स्थान : स्वाध्याय के लिए स्थान कैसा हो? यह प्रश्न स्वाभाविक है। स्वाध्याय के लिए स्थान कोलाहल रहित, स्वच्छ एवं एकान्त होना चाहिये।
स्वाध्याय का महत्व : भगवान महावीर ने गौतम की जिज्ञासा को शांत करते हुए स्वाध्याय के विषय में फरमाया कि स्वाध्याय से श्रुतज्ञान का लाभ प्राप्त होता है, मन की चंचलता समाप्त होती है और आत्मा आत्मभाव में स्थिर होती है। जैन साधना का लक्ष्य समभाव की उपलब्धि है और समभाव की उपलब्धि हेतु स्वाध्याय एवं सत्-साहित्य का अध्ययन आवश्यक है- सत्-साहित्य का स्वाध्याय मनुष्य का ऐसा मित्र है जो अनुकूल एवं प्रतिकूल दोनों परिस्थितियों में उसका साथ निभाता है और उसका मार्गदर्शन कर उसके मानसिक तनावों को समाप्त करता है। ऐसे साहित्य के स्वाध्याय से व्यक्ति को हमेशा आत्मसंतोष और आध्यात्मिक आनंद की अनुभूति होती है। मानसिक तनावों से मुक्ति मिलती है। यह मानसिक शांति का अमोघ उपाय है।
सत्-साहित्य के स्वाध्याय का महत्त्व अति प्राचीन काल से ही स्वीकृत रहा है। ओपनिषदिक् चिंतन में जब शिष्य अपनी शिक्षा पूर्ण करके गुरु के आश्रम से बिदाई मांगता है तो उसे दी जानेवाली अंतिम शिक्षाओं में एक शिक्षा होती थी-“स्वाध्यायान् मा प्रमदः' अर्थात् स्वाध्याय में प्रमाद मत करना। स्वाध्याय एक ऐसी वस्तु है जो गुरु की अनुपस्थिति में गुरु का कार्य करती है। स्वाध्याय से हम कोई न कोई मार्गदर्शन प्राप्त कर ही लेते हैं। महात्मा गाँधी कहा करते थे कि जब भी मैं किसी कठिनाई में होता हूँ, मेरे सामने कोई जटिल समस्या होती है, जिसका निदान मुझे स्पष्ट रूप से प्राप्त नहीं होता है तो मैं स्वाध्याय की गोद में चला जाता हूँ जहाँ पर मुझे कोई न कोई समाधान अवश्य मिल जाता
जैन परम्परा में जिसे मुक्ति कहा गया है वह वस्तुत: रागद्वेष से मुक्ति है। मानसिक तनावों से मुक्ति है और ऐसी मुक्ति के लिये पूर्व कर्म संस्कारों का निर्जरण या क्षय आवश्यक माना गया है और इसके लिये स्वाध्याय को आवश्यक बताया गया है। उत्तराध्यन-सूत्र में स्वाध्याय को आंतरिक तप का एक प्रकार बताते हुए उसके पांचों अंगों की विस्तार से चर्चा की गई है। बृहदकल्पभाष्य में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "नवि अस्थि न वि अ होही, सझाय समं तपो कम्म' अर्थात् स्वाध्याय के समान दूसरा तप का अतीत में कोई था न वर्तमान में कोई है
और न भविष्य में कोई होगा। इस प्रकार जैन परम्परा में स्वाध्याय को आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में विशेष महत्व दिया गया है। उत्तराध्यन-सूत्र में कहा गया है कि स्वाध्याय से ज्ञान का प्रकाश होता है। जिससे समस्त दु:खों का क्षय हो जाता है। वस्तुत: स्वाध्याय ज्ञान प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण उपाय है, कहा भी है
० अष्टदशी / 2240
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