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किया है, वह जैन-परंपरा में चले आए एतत्संबंधी विचार-क्रम भाव तथाकथित योगाभ्यासियों में बद्धमूल हुआ। 'देह दु:खं के अनुरूप है। ध्यान के सहयोगी हेतु, बाधक हेतु, साधक का महाफलम्' के सिद्धान्त ने उनके जीवन में मुख्यता ले ली। यों आचार व्यवहार, वृत्ति संयोजना आदि पर उन्होंने सुन्दर प्रकाश हठयोग ही उनका साध्य बन गया। वे यह भूल गए कि हठयोग डाला है, जो उनकी लेखनी का कौशल है।
तो राजयोग - अध्यात्मयोग का केवल सहायक का साधन मात्र आचार्य सोमदेव का वैशिष्ट्य
है। इसी तरह ध्यान योग के नाम से कतिपय ऐसे तान्त्रिक आचार्य सोमदेव निश्चय ही एक बहुत बड़े शब्द-शिल्पी
उपक्रम भी उद्भूत और प्रसृत हुए, जिनमें ऐहिक अभिसिद्धियों थे। अपनी कृति 'यशस्तिलकचम्पू' में उन्होंने जो सरस, सुन्दर,
के अतिरिक्त अध्यात्मकोत्कर्ष के रूप में जरा भी फलवत्ता नहीं लालित्यपूर्ण संस्कृत में अपना वर्ण्य विषय प्रस्तुत किया है, वह
थी। आचार्य सोमदेव ने बड़े ही कड़े शब्दों में उनका खण्डन नि:सन्देह प्रशस्य है। उन्होंने शब्द संयोजना. भाव-सन्निवेशना करते हुए योग साधकों को तद्विमुख होने को प्रेरित किया है। एवं अभिव्यंजना का बहुत ही सुन्दर संगम अपनी इस रचना में
यमों तथा नियमों के जीवन में सिद्ध हो जाने पर साधक में चरितार्थ किया है।
पवित्रता, निर्मलता और सात्विकता का संचार होता है। वह आचार्य सोमदेव ने अपने महाकाव्य के काव्यात्मक,
आत्मोन्मुख रहता हुआ, आसन, प्राणायाम तथा प्रत्याहार आदि साहित्यिक संदर्भो में प्रतिभा नैपुण्य द्वारा बहुत ही सुन्दर
का जो भी अभ्यास रहता है। तदर्थ दैहिक स्वस्थता या नीरोगता अभिव्यक्ति दी है। योग जैसे आध्यात्मिक साधनामूलक तात्विक
की जो अपेक्षा है, वह इन द्वारा प्राप्त होती जाए, ताकि योग की विषय पर भी उनकी लेखनी का चमत्कार दृष्टिगोचर होता है। आगे की भूमिका में बाधा न आए। उन्होंने ध्यान से संबद्ध उन सभी पक्षों का नपे तुले शब्दों में, मनोज्ञ
आचार्य सोमदेव चाहते थे कि योगी केवल कहने भर को . एवं आकर्षक शैली में जो विवेचन किया है, उसमें पाठक को योगी न रह जाए, उसके व्यक्तित्व और आभामण्डल से स्वात्मानुभव तथा साहित्यिक रसास्वादन दोनों ही उपात्त होते हैं। यौगिकता- योग-साधना झलकनी चाहिये। यह तभी होता है, भारत के संस्कृत के महान लेखकों में यह अद्भुत सामर्थ्य
है
जहा
जहाँ आर्त तथा रौद्र ध्यान का परिवर्जन कर साधक शुक्ल ध्यान रहा है कि उन्होंने कला, दर्शन और विज्ञान जैसे भिन्न-भिन्न का लक्ष्य लिए धर्म ध्यान में संप्रवृत रहता हो। विधाओं से संयुक्त विषयों का जो तलस्पर्शी विवेचन किया है, आचार्य सोमदेव की योग मार्ग के नाम से ध्यान पर एक वह उनकी सर्वग्राहिणी प्रज्ञा तथा अभिव्यक्ति प्रवणता का द्योतक स्वतन्त्र कृत्ति उपलब्ध है। यह कलेवर में लघु होते हुए भी ध्यान है, जिससे सामान्य जनों द्वारा नीरस कहे जाने वाले विषय भी विषयक विवेचन की प्रौढ काव्यात्मक शैली में रचित विलक्षण सरस बन जाते हैं।
पुस्तक है, जिसमें उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, विभावना, विशेषोक्ति, योग का क्षेत्र, जिसका ध्यान मुख्य अंग है, बड़ा ही व्यापक
समासोक्ति एवं अर्थान्तरन्यास आदि विविध अलंकारों के है। उसका प्रारम्भ योग के प्रथम अंग पाँच यमों की आराधना
माध्यम से ध्यान का बड़ा ही विशद, मनोज्ञ तथा अन्त: स्पर्शी से होता है। योग साधना में प्रविष्ट होने वाले व्यक्ति के लिए विश्लषण हुआ है। श
विश्लेषण हुआ है। शाब्दिक सुन्दरता के साथ-२ सग्रधरा जैसे सबसे पहले यह आवश्यक है कि उसके जीवन में अहिंसा व्यापे। लम्बे छन्द में यह रचित है। उसी का मतिफलन करुणा, दया और अनुकम्पा आदि में प्रकट इससे यह स्पष्ट है कि आचार्य सोमदेव ध्यान योग में होता है, जिनसे सम्यकत्व सुदृढ़ और समलंकृत बनाता है। विशेष अभिरुचिशील थे। यही कारण है कि उन्होंने उसी प्रकार योगाभ्यास में आने वाले के मन, वाणी तथा
यशस्तिलकचम्पू में प्रसंगोपात रूप में ध्यान का वर्णन किया है। व्यवहार में सत्य की प्रतिष्ठा हो, अर्थ लुब्धता उसके मन में जरा
इस वर्णन से यह प्रकट होता है कि उनकी यह मानसिकता थी भी न रहे, पर द्रव्य को वह मिट्टी के ढेले के समान समझे, इन्द्रिय
कि ध्यान के इर्द-गिर्द सहायक साधनों के नाम से जुड़े हुए ये भोगों मे जरा भी गमराह न बने तष्णा लालसा तथा परिग्रह के उपक्रम जो वास्तव में प्रत्यवाय-विघ्न रूप हैं. अपगत हो जाए। मायाजाल से विमुक्त रहे, ऐसा किए बिना जो लोग कष्टकर,
आचार्य सोमदेव द्वारा किया गया यह वर्णन ध्यान के क्षेत्र दुरुह मात्र, आसन एवं प्राणायाम आदि साधने में जुट जाते हैं, वे
में आत्मोत्कर्ष को लक्षित कर अपेक्षित वैराग्य और अभ्यास को बाह्य प्रदर्शन में तो यत्किंचित चमत्कृति उत्पन्न कर सकते हैं,
विशेष रूप से बल देने वाला है, क्योंकि इन्हीं से मनोजय, सिद्ध किन्तु उनसे अध्यात्म-योग जरा भी नहीं सधता।
होता है। मन के विजित होने पर "योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:१८ के हमारे देश में एक ऐसा समय रहा है, जब यम, नियम आदि अनुसार योग साधना में साधक सफलता प्राप्त करता जाता है। की ओर विशेष ध्यान न देते हुए बाह्य चमत्कार एवं प्रदर्शन का
पुस्तक है. जिसमें या
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