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"वैराग्य- आगत, अनागत, ऐन्द्रियिक भोगों में तृष्णा का अभाव, ज्ञान संपदा-बन्ध से छूटने एवं मोक्ष प्राप्त करने के उपाय, साधना-क्रम आदि का ज्ञान, असंग-आत्म-व्यतिरिक्त अनात्म-तत्व बाह्य पदार्थों में आसक्ति का अभाव, चित्त की स्थिरता तथा भूख प्यास आदि दैहिक शोक, चिन्ता आदि मासिक दुःखों एवं अहंकार विजय- ये योग साधना में ध्यान के सधने में कारण हैं।"११
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बाधक हेतु
योग के बाधक कारणों का उन्होंने इस प्रकार निरूपण किया है
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"आधि-मासिक
पीड़ा, कुत्सित मनोवृत्ति, व्याधि- शारीरिक रुग्णता विपर्यास अयथार्थ में यथार्थ का आग्रह, प्रमाद- तत्व ज्ञान की प्राप्ति एवं सदनुष्ठान में अनुत्साह आलस्य प्राप्त तत्त्व या ज्ञान तथ्य का अनुष्ठान करने में शिथिलता, विभ्रम भ्रान्ति तत्व अतत्व में समान बुद्धि अलाभ आत्म-अनात्ममूलक सद्द्बोध मन न होने से अभ्यास का फल प्राप्त न होना, संगिता तत्व ज्ञान होने के बावजूद भौतिक सुख के साधनों में प्रसन्नता दुःख के साधनों में मन का स्थिर न हो पाना, अशान्त रहना ये योग में अन्तराय या विघ्न करने वाले हेतु हैं । १२
अन्तरायों से अनाहत, अव्याहत योगी को कर्तव्य निर्देश हुए आचार्य लिखते हैं:
करते
"चाहे कोई योगी के शरीर में कांटे चुभोए, कोई उसकी देह पर चन्दन का लेप करे, दोनों स्थितियों में योगी रुष्ट और तुष्ट न होता हुआ पाषाण की तरह स्थिर भाव से ध्यान में लीन रहे । १३
इतर यौगिक उपक्रमों का निरसन
आचार्य सोमदेव ध्यान का उक्त रूप में विश्लेषण करने के बाद अन्य यौगिक परम्पराओं का निरसन करते हुए लिखते हैं: "ज्योति ओंकार की आकृति का ध्यान विधिपूर्वक ओंकार का जप, बिन्दु - अंगुलियों का स्वीकृत योग विधि के अनुरूप विभिन्न अंगों में, अंगुष्ठ का कानों में, तर्जनी का नेत्रप्रान्त में, मध्यमा का नासापुट में अनामिका का ऊपरी ओष्ठ में प्रान्त भाग में तथा कनिष्ठिका का नीचे के ओष्ठ प्रदेश में, स्थापन कर, अन्तर्दृष्टि से अवलोकन द्वारा पीत, श्वेत, अरुण श्याम आदि विविध वर्णों के बिन्दु का दर्शन१४ कला अर्द्धचन्द्राकृति पर मन का निरोध, नाद- अनाहत नाद आदि की अनुभूति कुंडली कुंडलिनी का जागरण वायु-संचार कुंभक पूरक, रेचक द्वारा प्राणायाम का अभ्यास, मुद्रा - हाथ व पैर तथा
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अन्याय अंगों का स्वीकृत योग-साधना के अनुरूप विभिन्न स्थितियों में अवस्थापन, मंडल- त्रिकोण, चतुष्कोण एवं वृत्ताकार आदि मंडल को उद्दिष्ट कर त्राटक-मूलक ध्यान निर्बीज कारण।
मरणकाल में वासना क्षय हेतु क्रिया विशेष, नाभि, नेत्र, ललाट, ब्रह्म, ग्रन्थि, आंत्रसमूह, तालू, आग्नेय तत्वमयी नासिका, रवि - दाहिनी, नाड़ी, चन्द्र- बाईं नाड़ी, लूता तन्तु - मकड़ी का जाला, ज्ञाननेन्द्रिय तथा हृदयांकुर के आधार पर प्राणायाम विधि से विशेष प्रकार का अभ्यास, अन्तकाल में निर्बीजीकरण द्वारा मृत्य विजय एवं मोक्ष प्राप्ति का उपक्रम आश्चर्य है, योग के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ जनों के ये उपक्रम अपने तथा औरों के लिए वंचना के ही हेतु हैं ।
यदि इन आचरणों-उपायों से कर्मों का क्षय हो जाय, तो इसके लिए तप, जप, आप्त-पूजा, दान एवं अध्ययन आदि की फिर आवश्यकता ही क्या रहे, फिर वे व्यर्थ ही हों । १५
वे आगे लिखते हैं
"बड़ा आश्चर्य है जो अविचारशीलता के कारण रम्य प्रतीत होने वाले, क्षणभर के लिए देह की वेदना शान्त करने वाले ऐन्द्रियक योगों के वशीभूत है, वह भी योगी कहा जाता है ।
इन्द्रियों के भोगों की तृष्णा जिसके मन को जर्जर बनाती रहती है- सताती रहती है, वह विषयेप्सा वासना के निरोध से उत्पन्न होने वाले यौगिक तेज की कैसे इच्छा कर सकता है ?
आत्मज्ञ कहा जाने वाला तथाकथित योगी, चिरकाल तक शारीरिक क्लेशमूलक योगकर्म प्राणायाम आदि के अभ्यास द्वारा यदि संचित कर्म क्षीण करने हेतु उद्यत रहता है तो उसे रोगी जैसा समझना चाहिये अर्थात् रोगी भी तो लंघन आदि द्वारा वात, पित्त, कफ की विषमता में उत्पन्न रोगों को नष्ट करने का प्रयत्न करता ही है । १६
योग-साधना के साथ वांछित जीवन-वृत्ति
साधना के साथ अपेक्षित जीवन-वृत्ति पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते हैं:
"शुद्ध ध्यान में जिसकी बुद्धि संलग्न होती है, उसे लाभ में, हानि में, वन में, घर में, मित्र में, शत्रु में, प्रिय में, अप्रिय में तथा सुख एवं दुःख में एक सरीखा होना चाहिये।
उसे चाहिये कि वह सदा परब्रह्म परमात्मा की ओर दृष्टि रक्खे, भूत का अनुशीलन करे, धृति, मैत्री तथा दया का परिपालन करे।
सत्य भाषण करे, वाणी पर नियंत्रण रखे। १७ आचार्य सोमदेव ने अपने इस ग्रन्थ में ध्यान का जो विवेचन
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