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________________ जप के साथ लक्ष्य के प्रति तन्मयता, भावना एंव तीव्रता हो तरंगे दूर-दूर तक फैलकर वातावरण को शुद्ध बनाती है। कई भक्तिपरायण व्यक्ति अपने इष्टदेव पंचपरमेष्ठी वीतराग अजपाजप-स्वरूप और प्रक्रिया जीवनमुक्त अरिहंत या निरंजन निराकार सिद्ध परमात्मा के जप प्राणायाम की ही एक विधा, जो विशुद्ध आध्यात्मिक है, को ही अभीष्ट मानते हैं। इष्ट देव का जाप करने से उनका जिसे अजपाजप “सोऽहं साधना या' हंसयोग कहा जाता है। सान्निध्य और सामीप्य प्राप्त होता है। ऐसे दिव्यात्मा भी कभी विपश्यना ध्यान एवं प्रेक्षा ध्यान के साथ जप काफी सुसंगत है। कभी प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं और कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं। किन्तु प्रेक्षा ध्यान एवं विपश्यना ध्यान में और इसमें थोड़ा सा परमात्मा या परमात्मपद की प्राप्ति ही मुमुक्षु साधक के जीवन अन्तर है। प्रेक्षा ध्यान या विपश्यना ध्यान में प्रारंभ में केवल का लक्ष्य होना चाहिये। ऐसे मुमुक्षु जपकर्ता को एकमात्र निरंजन श्वास के आवागमन को देखते रहने का अभ्यास है, परन्तु निराकार परमात्मा के प्रति पूर्णश्रद्धा रखकर जप प्रारंभ करने से अजपाजप में पहले स्थिर शरीर और शांत चित्त होकर श्वास पूर्व उन्हें विधिपूर्वक वंदना-नमस्कार करना चाहिये। उस जपकर्ता, के आवागमन की क्रिया प्रारंभ की जाती है। सांस लेते समय पुण्यात्मा में परमात्मा के प्रति तीव्र तन्मयता, तल्लीनता, "सो" और छोडते समय "हम" की ध्वनिश्रवण पर चित्त को एकाग्रता एवं पिपासा होनी चाहिये, ऐसे शुद्ध आत्मा से मिलन एकाग्र किया जाता है। या तादात्म्य पिपासा जितनी तीव्र होगी, उसी अनुपात में मिलन की संभावना निकट आएगी। जाप जप या नामस्मरण जितनी इस अनायास जप साधना में ध्यान योग भी जुड़ा है। इसमें समर्पणवृत्ति शरणागति एवं भक्ति, प्रीति के साथ किया जाएगा, श्वास के आवागमन पर सतर्क होकर ध्यान रखना और चित्त उतनी ही शीघ्र सफलता मिलनी संभव है। इसीलिए भक्तिवाद को एकाग्र करना पड़ता है। इतना न बन पड़े तो वायु के भीतर प्रवेश के साथ "सो" और निकलने के साथ "हम" के श्रवण के आचार्य ने कहा- "जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिः जपात् सिद्धिर्न संशयः" जप से सिद्धि होती है, जप से सिद्धि होती है, का तालमेल ही नहीं बैठता। इसलिए प्रत्येक श्वास की गतिविधि जप से अवश्य ही सिद्धि होती है, इसमें कोई संशय नहीं है। अत: पर ध्यान रखना पड़ता है। इतना ध्यान जम जाए, तभी जपकर्ता में जप के फल के प्रति आशंका या संशय नहीं होना ध्वनिश्रवण का अगला कदम उठता है। चाहिये। सोऽहं मंत्र का अर्थ और रहस्य जप का अन्तस्तल एवं महात्म्य ___'सोऽहम्' मंत्र वेदान्त का है, परन्तु जैनधर्म के आध्यात्मिक जप का महात्म्य बताते हुए कवि ने कहा है आचार प्रधान आगम-आचारांग-सूत्र के प्रथम अध्ययन के प्रथम स्थिर मन से सारे जाप करो, उद्देशक में आत्मा के अस्तित्व सूचक सूत्र में “सोहं" शब्द भव-भव का संचित ताप हरो।।ध्रुव।।। प्रयुक्त किया है। वह भी आत्मा का परमात्मा के साथ आत्मगुणों यह जाप शांति का दाता है, दुविधा को दूर भगाता है। में आत्म स्वरूप में एकत्व का सूचक है। वेसे भी सोऽहं में "सो" मानस का सब सन्ताप हरो।।स्थिर।।१।। का अर्थ वह और "अहम्" का अर्थ में है। यानी वह परमात्मा जप से सब काम सुधरते हैं, दिल में शुभ भाव उभरते हैं। मैं (शुद्ध आत्मा) हूँ। तात्पर्य है मैं परमात्मा के गुणे के समकक्ष चेतन से सदा मिलाप करो। स्थिर।।२।। हूँ। जितने मूल गुण परमात्मा में हैं, वे ही मेरी शुद्ध आत्मा में है। जब जप का दीपक जलता है, तब अन्तर का सुख फलता है। वेदान्त तत्वज्ञान का मूलभूत आधार है, उसी प्रकार "अप्पा सो करणी से अपने आप तरो।स्थिर।।३।। परमप्पा' इस जैनतत्वज्ञान के निश्चयदृष्टिपरक तत्वज्ञान का गर अन्तर का मन चंगा है, यह जाप पावनी गंगा है। आधार है। तत्त्वमसि, शिवोऽहं, “य: परमात्मा स एवाऽहम्', तरंगों से "सुमेरू" नाप करो। स्थिर।।४।। सोऽहम्, सच्चिदानन्दोऽहम्, अयमात्मा ब्रह्म आदि सूत्रों में आत्मा और परमात्मा में समानता है। "पंचदशी" आदि ग्रन्थों में इसी कवि ने जप का अन्त:स्तल खोल कर रख दिया है। जप अनुभूति का दर्शन एवं प्रयोग विस्तृत रूप से बताया गया है। के समय किसी प्रकार की दुविधा, दुश्चिन्ता, अशांति, बेचैनी, वस्तुत: अद्वैतसाधना, अथवा आत्मोपम्य साधना अथवा “ऐगे स्पृहा, फलाकांक्षा, लौकिक वांछा, ईर्ष्या, द्वेषभावना आदि नहीं आया" की साधना का अभ्यास भी इसी प्रयोग के साथ संगत हो हो तो जप शांति, शुभ भावनाओं, समर्पण वृत्ति, दृढ़श्रद्धा एवं । जाता है। सर्वतापहारी, मानस में तन्मयता, एकाग्रता और आराध्य के प्रति तल्लीनता लाने वाला है। जप से सम्यग्ज्ञान-दर्शन आत्मिक गायत्री साधना की उच्च स्तरीय भूमिका में प्रवेश करते आनंद और आत्मशक्ति पर आए आवरण दूर होकर इनका समय साधक को सोऽहम् जप की साधना का अभ्यास करना जागरण हो जाता है। गंगा की तरंगों के समान जप से उद्भुत आवश्यक होता है। अन्य जपों में तो प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना ० अष्टदशी / 2160 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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