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होती है, जो जपकर्ता के सूक्ष्म (तैजस्) शरीर को तेजस्वी, वर्चस्वी एवं ओजस्वी तथा आध्यात्मिक साधना के लिए कार्यक्षम बनाती है। साधक के जीवन की त्रियोग प्रवृत्तियाँ उसी ऊर्जा (तैजस) शक्ति के सहारे चलती है।
जपनीय शब्दों की पुनरावृत्ति के अभ्यास का चमत्कार
वह
मनुष्य की मानसिक संरचना ऐसी है, जिसमे कोई भी बात गहराई तक जमाने के लिए उसकी लगातार पुनरावृत्ति का अभ्यास करना होता है। पुनरावृत्ति से मष्तिष्क एक विशेष ढाँचे में ढ़लता जाता है । जिस क्रिया को बार-बार किया जाता है, आदत में शुमार हो जाती है। जो विषय बार-बार पढ़ा, सुना, बोला, लिखा या समझा जाता है, वह मस्तिष्क में अपना एक विशिष्ट स्थान जमा लेता है। किसी भी बात को गहराई से जमाने के लिए उसकी पुनरावृत्ति करना आवश्यक होता है।
एक ही रास्ते पर बार-बार पशुओं व मनुष्यों के चलने से पगडंडियां बनती हैं। इसी प्रकार मंत्र जप के द्वारा नियमित रूप से अनवरत मंत्रगत शब्दों की आवृत्ति करने से जपकर्ता के अन्तरंग में वह स्थान जमा लेता है। उस लगातार जप का ऐसा गहरा प्रभाव व्यक्ति के अन्तर पर पड़ जाता है कि उसकी स्मृति लक्ष्य से संबंधित अपनी जगह मजबूती से पकड़ लेती है। चेतन मन में तो उसका स्मरण पक्का रहता ही है, अचेतन मन में भी उसका एक सुनिश्चित स्थान बन जाता है । फलतः बिना ही प्रयास के प्राय: निद्रा और स्वप्न में भी जप चलने लगता है। यह है जपयोग से पहला महत्वपूर्ण लाभ ।
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जपयोग से दूसरा लाभ शब्द तरंगों का करिश्मा जपयोग से दूसरा लाभ है अन्तरिक्ष में प्रवाहित होने वाले दिव्य चैतन्य प्रवाह से अभीष्ट परिमाण में शक्ति खींचकर उससे लाभ उठाना। जैन दृष्टि से भी देखा जाए तो मंत्र के अधिष्ठायक देवी- देव जपकर्ता साधक को अभीष्ट लाभ पहुंचाते हैं। इसका अर्थ हैं- मंत्रजाप से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म तरंगें विश्वब्रह्मण्ड (चौदह रज्जूप्रमाण लोक) में प्रवाहित ऊर्जाप्रवाह को खींच लाती है। जिस प्रकार किसी सरोवर में ढेला फेंकने पर उसमें से लहरें उठती हैं और वे वहीं समाप्त न होकर धीरे-धीरे उस सरोवर के अन्तिम छोर तक जा पहुँचती है, उसी प्रकार मंत्रगत शब्दों के अनवरत जाप (पुनरावर्तन) से चुम्बकीय विचारतरंगे पैदा होती हैं, जो विश्व - ब्राह्मण्ड रूपी सरोवर का अंतिम छोर विश्व के गोलाकार होने के कारण, वही स्थान होता है, जहां से मंत्रगत ध्वनि तरंगों का संचरण प्रारंभ हुआ था। इस तरह मंत्रजप द्वारा पुनरावर्तन होने से पैदा होने वाली वाली ऊर्जा-तरंगे धीरे-धीरे बहती व बढ़ती चली जाती हैं और अन्त में एक पूरी परिक्रमा 'करके अपने मूल उद्गम स्थान जपकर्ता के पास लौट आती है। किसका जप किया जाए ?
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अब प्रश्न होता है कि जपयोग का साधक जप किसका करें? वैसे तो जप करने के लिए कई श्रेष्ठ मंत्र है, कई पद हैं, कई श्लोक और गाथाएं हैं। जैन धर्म में सर्वश्रेष्ठ महामंत्र पंचपरमेष्ठी नमस्कार मंत्र है। वैदिक धर्म में गायत्री मंत्र को सर्वश्रेष्ठ समझा जाता है। यह बात मंत्र का चयन करते समय अवश्य ध्यान में रखनी चाहिये।
मंत्रों में अर्थ का नहीं, ध्वनि विज्ञान का महत्व है
मंत्रों में उनके अर्थ का उतना महत्व नहीं होता, जितना कि ध्वनिविज्ञान का अर्थ की दृष्टि से नवकार महामंत्र या गायत्री मंत्र सामान्य लगेगा, परन्तु सामर्थ्य की दृष्टि से अद्भुत और सर्वोपरि हैं ये, इसका कारण यह है कि मंत्र स्रष्टा वीतराग की दृष्टि में अर्थ का इतना महत्व नहीं रहा, जितना शब्दों का गंधन महत्वपूर्ण रहा है। कितने ही बीजमंत्र ऐसे हैं, जिनका कोई विशिष्ट अर्थ नहीं निकलता, परन्तु वे सामर्थ्य की दृष्टि से विलक्षण है। "ही" “श्री” "क्ली” ब्लू, ऐं, हूं यं, फट् इत्यादि बीज मंत्रों का अर्थ समझने की माथापच्ची करने पर भी सफलता नहीं मिलती, क्योंकि उनका मंत्र के साथ सृजन यह बात ध्यान में रखकर किया गया है कि उनका उच्चारण किस स्तर का तथा कितनी सामर्थ्य का शक्तिकम्पन उत्पन्न करता है, एवं जपकर्ता, अभीष्ट प्रयोजन और समीपवर्ती वातावरण पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है ? जपकर्ता की योग्यता, जपविधि और सावधानी
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बीजमंत्रों का तथा अन्य मंत्रों का जाप करने से पूर्व इन तथ्यों पर अवश्य ही ध्यान देना चाहिये। दूसरी बात यह है कि जप द्वारा किसी मंत्र को सिद्ध करने के लिए उसकी मंत्रस्लष्टा द्वारा बताई गई विधि पर पूरा ध्यान देना चाहिये। कई विशिष्ट मंत्रों की जप साधना करने के साथ मंत्रजपकर्ता की योग्यता का भी उल्लेख किया गया है कि मंत्रजपकर्ता भूमिशयन करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे, सत्यभाषण करे, असत्य व्यवहार न करे, मंत्रजाप के दौरान किसी से वाद-विवाद कलह, झगड़ा न करे, कषाय उपशान्त रखे मंत्र के प्रति पूर्ण श्रद्धा-निष्ठा रखे, आदर के साथ निरन्तर नियमित रूप से जाप करे। एक बात जप करने वाले व्यक्ति को यह भी ध्यान में रखनी है कि जप करने का स्थान पवित्र, शुद्ध एवं स्वच्छ हो, वहां किसी प्रकार की गन्दगी न हो, जीवजन्तु कीड़े-मकोड़े मक्खी-मच्छर आदि का उपद्रव या कोलाहल न हो, जपस्थल के एकदम निकट या एकदम ऊपर शौचालय (लेट्रीन) या मूत्रालय न हो, हड्डी या चमड़े की कोई चीज वहाँ न रखी जाए। जप करने वाला व्यक्ति मद्य, मांस, व्यभिचार, हत्या, दंभ मारपीट, आगजनी, जूआ, चोरी आदि से बिल्कुल दूर रहे तथा जप करने का स्थान, व्यक्ति, दिशा (पूर्व या उत्तर), माला समय, आसन, वस्त्र आदि जो निर्धारित किये हों वे ही मंत्र की सिद्धि तक रखे जाएं।
० अष्टदशी / 2150
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