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________________ आचार्य ज्ञान मुनि बाहर के आकार बताते विचार हरेक मनुष्य के पास तीन प्रकार के योग होते हैं- मन, वचन और काया । इन योगों का कार्य मुख्यतः सोचना, बोलना और करना है ये तीनों योग उसकी आत्मा को भीतर से बाहर । तक जोड़ने का काम करते हैं। मन से जो भी चिन्तन किया जाता है, उसका असर वचन, काया में आए बिना नहीं रहता। इसलिए मनस्विदों ने मन को नियंत्रित करने एवं वश में करने की बात कही है। मन के नियंत्रित होने पर वचन और काया तो स्वतः ही नियंत्रित हो जाते हैं। जैन शास्त्रों में भी मन को नियंत्रित करने की बात महत्वपूर्ण रूप से प्रतिपादित की गई है। मन भीतर में है जो कि आत्मा से सीधा संस्पर्शित है। यह मन दो प्रकार का बतलाया है- द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन तो पुद्गलात्मक होता है, भावमन विचारात्मक होता है विचार स्फुलिंग एक तरह से आत्मा के ही पर्याय हैं भीतर से उठने वाले ये स्फुलिंग, इन्सान को बाहर-भीतर प्रभावित करते हैं। जिस प्रकार घड़े के भीतर यदि पानी ठंडा हो तो बाहर ठंडापन लगेगा और यदि पानी के स्थान पर जलती हुई लकड़ी हो तो बाहर भी गर्माहट आए बिना नहीं रहेगी। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है- "जहां अंतोतहा बाहिं" इन्सान जैसा अन्दर में होता है वैसा ही बाहर भी आने लगता है। इसलिए बाहर को ठीक करने के लिए भीतर को ठीक करना आवश्यक है । जो विचार व्यक्ति के भीतर में चल रहे हैं उसका शरीर पर किसी न किसी रूप में असर आए बिना नहीं रहता। भले Jain Education International कोई कितना ही विचारों को छिपाने का प्रयास या कोशिश करे फिर भी उसकी इन्द्रियों पर वे भाव उभर ही जाते हैं। बशर्ते कि सामने वाला इन्सान यदि बुद्धिमान हो तो स्पष्ट अनुमान लगा लेता है कि इसमें भीतर में क्या विचार चल रहे हैं। यदि इन्सान को भीतर में क्रोध आ रहा है तो उसे वह कितना भी दबाने का प्रयास करे तो भी वह चेहरे पर किसी न किसी रूप में आ ही जाता है। इसके लिए कषायों की परिभाषाएं सविस्तार जानना अपेक्षित है। इसके साथ ही गुरु गम से ज्ञान समझना जरूरी है। दवाएं कितनी भी हो पर डाक्टरी परामर्श, निर्देश आवश्यक है । वही स्थिति गुरु की है। पुस्तकीय ज्ञान कितना ही क्यों न हो तथापि उसे सही ढंग से समझने के लिए योग्य गुरु की आवश्यकता रहती है। बाहर से भीतर के विचारों को समझने के लिए कई नीतिकारों ने भी कहा है आकारैइंगिर्तैगत्या, चेष्टया भाषणेन च । विकारेण, लक्ष्यतेन्तर्गतं मनः ।। नै इन्सान के बाहरी आकार, इंगित, संकेत, चेष्टा एवं बोलना तथा आँखों एवं चेहरे की क्रियाएँ संकेत से उसके भीतर के विचारों को समझा जा सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र के माध्यम से भगवान महावीर ने गुरु के प्रति शिष्य के विनय को स्पष्ट करते हुए कहा है आणानिद्दस करे, गुरुण मुनवाए कारए । इंगियागार संपन्ने, से विणिएत्ति वुच्चई || आशा और निर्देश के अनुसार चलने वाला, गुरु के पास रहने वाला, इंगित और आकार से सम्पन्न साधक विनीत कहलाता है। बाहर के आँख, मुख और हाथ के ईशारे से समझने वाला विनीत शिष्य कहलाता है और कई बार बिना बाहरी हाथ, पैर, आँख आदि हिलाए गुरु के मन में उठने वाले विचारों को समझ जाता है, वह पूर्ण समर्पित विनीत शिष्य होता है। यह भी संभव है जब गुरु शिष्य के मन में परस्पर पूरी तरह तदाकारता हो। जिस प्रकार माँ का बेटे के प्रति होता है। बेटा दस हजार कि० मी० दूर है, वहाँ भी अगर उसका ऐक्सीडेंट हो जाता है तो माँ का मन यहाँ उचट जाता है। वह बच्चे पर आये संकट को भांप जाती है। यह भीतर के इंगित / एक्शन हैं। वासिलिएव एवं कामिनिएव ने इस संदर्भ में कई प्रयोग किये हैं। एक वैज्ञानिक कुछ चूहों को लेकर समुद्र की गहराइयों में गया। जहाँ पर वायु तरंगे / ध्वनि तरंगें भी नहीं पहुँच सके। ऊपर एक वैज्ञानिक उन चूहों की माँ के सिर पर इलेक्ट्रोड अष्टदशी / 186 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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