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________________ यह विवाद का विषय नहीं है कि स्तोत्र में श्लोकों की संख्या आमंत्रित कीजिए। वे कोई न कोई अद्भुत चमत्कार दिखला कितनी है और कितनी होनी चाहिये, यह विषय तो श्रद्धा, भक्ति कर आपको अवश्य ही सन्तुष्ट करेंगे। राजा ने अपने अनुचरों और स्तुति का है, संख्या का नहीं। को भेजकर आचार्यश्री को राजसभा में आकर कोई चमत्कार भक्ति रसात्मक विश्व स्तोत्र साहित्य में "भक्तामर दिखलाने का संदेश भिजवाया, किन्तु सांसारिक क्रिया-कलापों, स्तोत्र" का विशिष्ट स्थान है और इसका प्रत्येक पद सिद्धि विषयों से विरक्त, वीतराग मार्ग के पथिक आचार्यश्री ने अपनी दायक मंत्र है। ऐसे अनुपम, अनूठे, लोकोत्तर एवं कृति के संत-समाचारी में किसी प्रकार का चमत्कार प्रदर्शित करने का कृतिकार श्री मानतुंगाचार्य के जीवन व समय के सम्बनध में निषेध होने से राजसभा में उपस्थित होने से इन्कार कर दिया। ऐतिहासिक कोई प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है। जैन धर्म राजा ने इसे राजाज्ञा का उल्लंघन मान कुपित हो अनुचरों को दर्शन के ज्ञाता, इतिहासकार डा ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ तथा । आदेश दिया कि आचार्यश्री को बन्दी बनाकर राजसभा में तीर्थकर मासिक पत्रिका के सम्पादक परम विद्वान डॉ० नेमिचन्द उपस्थित किया जाय। आदेशानुसार आचार्यश्री को राजसभा में जैन, इन्दौर के अनुसार "जैन परम्परा में करीब बारह मानतुंग उपस्थित किया गाय। वहां उन्हें आपाद कंठ दृढ़ लौह शृंखलाओं नाम के संत हुए हैं। इनमें से "भक्तामर स्तोत्र' के रचनाकार से वेष्ठित कर तलघर में डाल दिया और वहां जितने भी ताले कौन से मानतुंग है, कहा नहीं जा सकता। कृतिकार समय के उपलब्ध थे जड़ दिये। ऐसी विषम परिस्थिति में अपने ऊपर प्रवाह में बह जाता है, विलीन हो जाता है, उसकी कृति अपनी अकस्मात आये उपसर्ग को देख आचार्य श्री निरपेक्ष भाव से अनुपमता, श्रेष्ठता अद्भुतता, गुणवत्ता, महात्म्य आदि अपने आराध्य भगवान ऋषभदेव की स्तुति में लीन हुए। भक्ति विशेषताओं के कारण काल को जीत लेती है, कालजयी बन । का प्रवाह ऐसा प्रवहमान हुआ कि इधर से स्तुति में एक-एक जाती है। इन्हीं विशेषताओं के कारण "भक्तामर स्तोत्र'' एक श्लोक की रचना करते गये और इधर एक-एक ताला टूटता काजलयी कृति-रचना है। गया। स्तुति में आचार्यश्री के अंतर से ज्यों ही "आपद कंठमुरु श्रृंखला वेष्ठितांगा" श्लोक प्रस्फुटित हुआ कि दृढ़ लौह इस स्तोत्र के आविर्भाव के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं हैं। श्रृंखलाएं कच्चे सूत (धागे) की तरह टूट कर बिखर गईं और कुछ विद्वान इसका आविर्भाव वाराणसी के राजा हर्षदेव के समय स्तुति में स्तोत्र पूर्णकर वे राजसभा में उपस्थित हो गये। में, तो कुछ विद्वान उज्जैन के राजा भोजदेव के समय मे होना मानते हैं, किन्तु लोक प्रचलित धारणा तथा मान्यता के अनुसार इस चमत्कार पूर्ण घटना से राजा, दरबारी (सभासद) कहा व सुना जाता है कि मालव अंचल (मध्य प्रदेश) की शस्य तथा नगरवासी बहुत ही प्रभावित हुए। जैन धर्म की महती श्यामला ऐतिहासिक धारा नगरी के महान् प्रतापी शासक प्रभावना हुई और वहां उपस्थित सभी ने आचार्य श्री को श्रद्धासाहित्य, संस्कृति एवं कला के उन्नायक राजा भोजदेव परमार भक्ति पूर्व नमन किया। उनकी जय-जयकार की और जैन धर्म (विक्रम की सातवीं सदी) ने अपने मंत्री जैन धर्मावलम्बी श्री स्वीकार किया। इससे स्पष्ट है कि भक्तामर स्तोत्र एक महान् मतिसागर से एक दिन बात ही बात में कहा कि "हमारी प्रभावी, चमत्कारी, महिमावन्त एवं मंगलकारी स्तोत्र है। इस राजसभा मे कई ब्राह्मणधर्मी विद्वानों द्वारा अद्भुत चमत्कार स्तोत्र के माध्यम से भक्त, भक्ति एवं समर्पण के सोपान पर प्रदर्शित किये गये हैं। यथा कलिकुलगुरु कालिदास द्वारा चढ़कर स्तोत्रकार (रचयिता) की तरह ही अपने आराध्य के कालिका की उपासना-आराधना से अपने कटे हुए हाथ पैरों को साथ घनिष्ट एकात्मकता की अनुभूति करता हुआ परमात्मा की जोड़ना, कवि माघ द्वारा सूर्योपासना से अपना कुष्ठ रोग दूर अनन्त शक्तियों का पारस स्पर्श पाकर जैसे स्वयं के अन्तर में करना, कवि भारवि द्वारा अम्बिका की भक्ति से अपना जलोदर । अनन्त शक्ति का उद्भव तथा प्रस्फुटन की अनुभूति कर सकता रोग दूर करना आदि। क्या तुम्हारे जैन धर्म में भी कोई संत, है। विद्वान या सुकवि हैं जो ऐसे अद्भुत चमत्कार प्रदर्शन की क्षमता ऐसे अद्वितीय, अनूठे, अद्भुत एवं भक्तिरस से परिपूर्ण रखता है?" स्तोत्र से जैन धर्मावलम्बियों के अतिरिक्त कई जैनेत्तर विद्वान, संयोग ऐसा बना कि कुछ ही दिनों बाद ग्रामानुग्राम संस्कृत भाषाविद पंडित भी प्रभावित हैं। मैक्समूलर, कीथ, धर्मोद्योत करते हुए महामुनि श्री मानतुंगाचार्य का धारा नगरी में बेवर, हरमन जैकोबी, विण्टर नित्स शालोट, क्राउसे आदि पदार्पण हुआ, मंत्री श्री मतिसागर ने आचार्यश्री के पदार्पण के पाश्चात्य प्राच्यविदों विद्वानों तथा भारतीय विद्वानों ने तथा समाचार राजा से कहे। साथ ही यह संकेत भी किया कि भारतीय विद्वानों-मनीषियों में सर्वश्री पं० दुर्गाप्रसाद . पं० आचार्यश्री एक महाप्रभावक संत हैं, आप उन्हें राज्यसभा में काशीनाथ शर्मा, गौरीशंकर हीराचन्द ओझा बलदेवप्रसाद ० अष्टदशी / 1720 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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