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विपिन जारोली
एक कालजयी स्तोत्र : भक्तामर स्तोत्र
चरम तीर्थंकर श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी की अविछिन्न श्रमण परम्परा में महामुनि मानतुंगाचार्य विरचित 'भक्तामर स्तोत्र' अपरनाम 'आदिनाथ स्तोत्र' एक महाप्रभावक एवं कालजयी स्तोत्र है । वसन्त तिलका (मधु माधवी) छन्द में निबद्ध क्लासिकल ( उच्च स्तरीय शास्त्रीय) अलंकृत शैली में संस्कृत भाषा में रचित कई दृष्टियों से सर्वोपरि इस मनोमुग्धहारी स्तोत्र में परिष्कृत भाषा सौष्ठव, सहजगम्य छन्द प्रयोग, साहित्यिक सौन्दर्य, निर्दोष काव्य-कला, उपयुक्त छन्द, अर्थ, अलंकारों की छवि दर्शनीय है तथा इसमें अथ से इति एक भक्तिरस की अमीय धारा प्रवाहित है ।
" भक्तामर स्तोत्र" आह्लादक, भक्तिरसोत्पादक, वीतरागदशा प्रदायक स्तुति " तमसो मा ज्योतिर्गमय' की एक अनूठी, अनुपम, अद्वितीय काव्य कृति है। इसका प्रत्येक श्लोक “सत्यम् शिवम् सुन्दरम्' की छटा समेटे हुए हैं। श्लोकों में प्रयुक्त उपमा, उपमेय, उत्प्रेक्षा, रूपक, अर्थान्तरन्यास, अतिशयोक्ति आदि अलंकारों की पावन सुर-सरिता श्रद्धालुओं को परमात्म तत्व की अवगाहना कराती है।
आध्यात्मिक दृष्टि से इस स्तोत्र में जहां एक ओर भक्ति, काव्य, दर्शन तथा जैन धर्म तत्व के सिद्धान्तों एवं आत्मा और कर्म के सनातन संग्राम का स्वरूप, चिन्तन तथा विवेचन है, वहां
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दूसरी ओर लौकिक दृष्टि से विपदा, आपदा, भय, कष्ट पीड़ा, परीक्षा प्रतियोगिता, उत्पीड़न, चुनौती आदि त्रासों से मुक्ति का कल्याणकारी सुख, संम्पदा, संतोष, शान्तिदायक स्वरूप, चित्रण और विवेचन भी स्पष्टतः दृष्टिगोचर होता है ।
'भक्तामर स्तोत्र' के सम्बन्ध में संस्कृत-साहित्य के विश्रुत विद्वान डॉ० ए० वी० कीथ का कथन है' "यह स्तोत्र पारमात्मिक दृष्टि से आत्म-कल्याणार्थ सृजित है और इसका प्रत्येक श्लोक आध्यात्मिक और देव काव्य के अन्तर्गत आता है । इसका प्रत्येक पद, पंक्ति और शब्द सहज, सरल, सरस एवं सुगम है। पढ़ने तथा श्रवण मात्र से इसके यथार्थ भावों का बोध होता है। अर्थ की श्रेष्ठता बोधक उज्ज्वल पदों का नियोजन होने से प्रसादगुण निहित है। एक वस्तु के गुण अन्य वस्तुओं के गुणों के नियोजित होने के कारण इसमें समाधि गुण है। परस्पर गुम्फित शब्द रचना होने से इसमें श्लेष गुण समाहित है। छोटे बड़े समासों - संधियों के प्रयोग तथा कोमल कान्त पदावलीशब्दावली के होने से यह ओजगुण समन्वित है। यहां तक कि "टवर्ग' के कठोर शब्दों का प्रयोग नहीं होने से यह स्तोत्र माधुर्य गुण से सराबोर है।"
ऐसे आध्यात्मिक काव्य, कला, भाषा, भक्ति, प्रसाद, माधुर्य, ओज भावों आदि गुणों / विशेषताओं से सुसम्पन्न सहज, सरल, सरस, सहज, कोमलकान्त शब्दावली - पदावली अदि से प्रवहमान स्तोत्र का प्रारम्भ " भक्तामर" शब्द से होने से श्रद्धालाओं ने इसे " भक्तामर स्तोत्र" से अभिहित किया है, जो कि सर्वत्र प्रचलित है। स्तोत्र के द्वितीय श्लोक में चतुर्थ चरण के अन्त में "प्रथमं जिनेन्द्रम्" के उल्लेख से स्पष्ट है कि यह स्तोत्र प्रथम जिनेन्द्र तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की भक्ति पूर्ण स्तुति में विरचित कालजयी स्तोत्र है ।
“भक्तामर स्तोत्र” एक कालजयी स्तोत्र इसलिए है कि जब से इसकी रचना हुई है तब से लेकर आज तक जैन धर्म दर्शन की सब ही सम्प्रदायों, उप सम्प्रदायों में समानरूप से तथा जैनेतर विद्वानों-श्रद्धालुओं द्वारा अबाध गति से पढ़ा तथा पाठ किया जाता रहा है और भविष्य में अनन्तकाल तक इसी प्रकार पढ़ा तथा पाठ किया जाता रहेगा।
इस स्तोत्र में कुल ४८ (अड़तालीस) श्लोक निबद्ध हैं। कुछ विद्वान, श्रद्धालु तथा संत इसे ४४ (चवालीस) तथा कुछ ५२ (बावन) श्लोकी इस स्तोत्र को मानते हैं । ४९ (उनचास ) से लेकर ५२ (बावन) श्लोकों का जहां तक सम्बन्ध है, ये ४ श्लोक मेरे संग्रह में ५ (पांच) प्रकार के हैं। इससे लगता है कि संभवत: किन्हीं स्तुतिकारों ने अपनी-अपनी भक्ति के आवेग में इन्हें रचकर इस स्तोत्र में सम्मिलित कर लिये हों, जो भी हो ।
० अष्टदशी / 1710
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