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नंदलाल बंसल, बी. ए., बी.एड.
वर्तमान शिक्षा दशा और दिशा मेरा पूरा प्रयास बाल- शिक्षा पर केन्द्रित रहेगा जो भावी जीवन की नींव है
तेजी से बढ़ती महत्त्वाकांक्षा एवं भौतिक सुखों की इच्छा ने शिक्षण के विषय में आज वर्षों से प्रस्थापित विवेक पूर्ण दिशा निर्देशों एवं मान्यताओं को जड़ (चूल) से हिला दिया है, बालक स्वाभाविक मानवीय विकास के लक्ष्य को ध्वस्त कर दिया है।
उदाहरणार्थं बच्चे की शाला प्रवेश की उम्र को लें। हमारे यहां प्राचीनकाल में ५ वर्ष की उम्र होने पर विद्याभ्यास के लिए गुरुकुलों में भेजते थे । विश्वस्तर पर यह मान्य है कि Reading readiness comes at 5 plus | लगभग १७ वर्ष पूर्व जयपुर में एक मनोवैज्ञानिक चिकित्सक से मेरी चर्चा हुई थी। उसने भी आयु के उपरोक्त सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था। उसने बताया था कि बालक को कलम पकड़ सकने, आकार बनाने, पढ़ने आदि बौद्धिक विकास की तैयारी ५ वर्ष की उम्र के बाद ही होती है। उन्होंने बताया था कि इससे पूर्व के० जी० अथवा अन्य पद्धतियों के द्वारा विभिन्न शिक्षण साधनों व उपकरणों के साथ खेलते-खेलते बच्चे की इन्द्रियों का विभिन्न प्रकार से विकास होता है। मांतेस्सरि पद्धति बिल्कुल यही करती है। उसके विभिन्न साधन पूर्ण वैज्ञानिक तरीके से बनाए गये हैं। तरह-तरह के साधनों से खेलते-खेलते अनजाने ही बच्चे के स्नायुओं में एकाग्रता, अनुशासन, सफाई, व्यवस्था, स्वालम्बन
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आदि का चारित्रिक विकास होता चलता है। मांतेस्वरि पद्धति में बिना पुस्तक, स्लेट, गिनती, रेखागणित की विभिन्न आकृतियों अक्षरों से परिचित हो जाता है और ५ वर्ष की उम्र आते-आते
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बालक पूर्ण रूप से मानसिक दृष्टि से शाला प्रवेश के लिए तैयार हो जाता है। के० जी० • किन्डर गार्डन का अर्थ ही है खेल द्वारा शिक्षा | अतः ५ वर्ष से पूर्व की उम्र औपचारिक शिक्षा प्रारम्भ करने की नहीं है
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समृद्धि के लिए दौड़ ने किताबी शिक्षा के दबाव को इतना बढ़ा दिया है कि माता-पिता दो अढ़ाई साल के बच्चे से आशा करने लगे हैं कि वह पढ़ने लिखने लगे। यु०के०जी० एल० के०जी० और नर्सरी से भी आगे बढ़कर प्ले ग्रुप स्कूल खुल गये हैं। इन सबमें खेल-कूद गौण, बचपन गायब। इस स्थिति के लिए माता-पिता की हविश ही एक मात्र जिम्मेदार है। बस बच्चा पढ़े। पढ़े, पढ़े। चाहे अर्थ समझ में नहीं आवे तो रटे और अच्छे नम्बरों से पास हो। हम सभी जानते हैं कि बच्चे की काफी शक्ति इसी रटने में, घोकने में खर्च हो जायेगी और स्वाभाविक सृजन शक्ति, विचार शक्ति एवं स्मृति का विकास कुण्ठित हो जायेगा। इसके साथ ही बालक एक तरफ दब्बू बनेगा तो दूसरी तरफ उद्दण्ड व हठी भी । इस अस्वाभाविक शिक्षा व्यवस्था से बालकों के शारीरिक विकास का भी बड़ा नुकसान हो रहा हैदुर्बल शरीर, आँखों पर चश्मा, उत्फुल्लता खत्म। बचपन में
बचपना गायब ।
दैनिक भास्कर २४ जून २००७ के अनुसार आई सी एफई (इण्डियन सर्टिफिकेट आफ सेकेण्डरी एजूकेशन) चाहता है कि शाला प्रवेश के समय बच्चे की उम्र ४ वर्ष हो । महाराष्ट्र शिक्षा मण्डल का नियम ५ वर्ष की उम्र का है। यही मध्य प्रदेश राज्य में भी है।
बालकों की बच्चों को जल्दी शिक्षा, अच्छी शिक्षा, अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा की लालसा का दोहन करते हुए शिक्षण एवं भरपूर कमाई देनेवाला व्यवसाय बन गया है करोड़पति और अरबपति लोग भी नर्सरी सेल लगाकर व्यावसायिक शिक्षा की ऊँची व भव्य चमकदार दुकाने खोलकर बैठ गये हैं । दोष :
एक बच्चों के लिए पढ़ाई को और अधिक अप्रिय व बोझिल बना दिया है। छोटी कक्षाओं में पीरियड व्यवस्था ने जो कम से कम प्राथमिक स्तर तक पूर्ण अवैज्ञानिक है, बालक की रुचि, आनन्द, स्वाभाविक विकास सब रुक जाते हैं। किसी विषय का “पाठ” चल रहा है। शिक्षक व बालक पूरी तन्मयता के साथ उसके रसास्वादन में डूबे हुए हैं और अचानक पीरियड की घंटी बज जाती है। बालकों को लगता है जैसे किसी ने थप्पड़
अष्टदशी / 121
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