SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हमारे ऋषिगण प्रतिकूलताओं से भरा अभावग्रस्त जीवन जीते थे फिर भी तथाकथित सुखी समद्ध कहे जाने वालों लोगों की तुलना में अधिक शांति भरा जीवन जीते थे। तब का समय सतयुग कहलाता था, अध्यात्म अपने स्वच्छ निर्मल रूप में विद्यमान था। सभी के जीवन में उतरा देखा जा सकता था । इसका एक मात्र यही समाधान है कि विज्ञान के साथ सद्भाव का समावेश हो । भौतिकी और आत्मिकी का समन्वय हो । भौतिकवाद और अध्यात्मवाद दोनों ही क्षेत्रों में जमी विद्रूपताओं को आमूलचूल निकाल बाहर करना जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि शिक्षा जीवकोपार्जन के लिए हो किन्तु यह देखना है कि कहीं हम शिक्षा सर्जन के साथ मानवीय मूल्यों व नैतिकता का गला तो नहीं घोट रहे हैं? आज शिक्षा विद्याविहीन होने से नैतिक मूल्यों का हास हुआ है चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा की भूमिका अहम होती है। उज्ज्वल चरित्र, श्रेष्ठ चिंतन एवं शालीन व्यवहार की धुरी है, विद्या जिसमें जीवन जीवंत होता है पर आज ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता। जहां चरित्र और आदर्श महान होना चाहिये वहां ग्लेमर की चकाचौंध है। स्वामी विवेकानंद के कथनानुसार " मानव की अपने जीवन की इच्छाओं का संयमित होकर वास्तविक अवधारणाओं का प्रकट होना, जिसमें मानवीयता का विकास हो, यही शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य है, शिक्षा वह है जो जीवन के साधनों के अर्जन के अलावा आंतरिक चेतना को परिष्कार करे। उसमें समवेदना और भावना का समावेश हो,” इसी कारण उपनिषद के मंत्र "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया" का उद्घोष किया जा सका। शिक्षा में ऐसे पुनीत एवं दिव्य वातावरण की रचना करे कि समाज महापुरुषों के निर्माण की टकसाल बन जाय । शिक्षा ऐसी हो कि धर्म, दर्शन और संस्कृति संबंधित पाठ्यक्रम सभी में "जीवन जीने की कला" निहित हो । , शिक्षा के संबंध में यह दिशा बोध व्यवहार रूप में जीवन में उतरे, हमारे जीवन की समझ पैदा करे, जो विचारों में श्रेष्ठता व भावना में उत्कृष्टता लाए। उपर्युक्त विवरणानुसार आज शिक्षा का स्वरूप दिखाई नहीं देता, अत: शिक्षण संस्थाएं चाहे जैन हो या अजैन उपर्युक्त लक्ष्य को प्राप्त करें । Jain Education International विजयनगर पूर्व प्राचार्य श्री गोदावत जैन गुरुकूल, छोटीसादड़ी अष्टदशी / 120 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy