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मेघराज श्रीमाली
अजन्मी मां की गुहार
यह सब बतलाने के पीछे मेरा तात्पर्य यही है कि नारी में भी वही शक्ति और चेतना है जो पुरुषों में है। आज समय की मांग है कि महिला स्वयं अपने तेज और सामर्थ्य को समझकर जीवन, परिवार, समाज तथा राष्ट्र की उन्नति करे। ममता की गौरवमयी प्रतिमा, वात्सल्य का छलछलाता सागर, सिंहनी शक्ति का प्रतिरूप नारी अपनी छिपी हुई प्रतिभा को प्रकाशवान कर प्रगति के प्रत्येक क्षेत्र में अपनी उत्कृष्टता सिद्ध करे। पुरुषार्थ को छोड़ स्त्रियर्थ के द्वारा अपनी क्षमता उजागर करे।
- इसी सन्दर्भ में मेरा बहनों से यही कहना है कि हमारा सौभाग्य है हम विकास का एक हिस्सा बन पाये। राष्ट्र और समाज की जो प्रगति सामने है वह व्यापक तौर पर हमारे प्रयासों को अधिक बल प्रदान करती है। आगे की सफलता के बीज हमारे चारों और बिखरे पड़े हैं आवश्यकता है हमारे आत्मविश्वास की, भीतर के प्रकाश की। हम राष्ट्र और समाज की ताकत हैं। परिवार की जिम्मेदारी प्रमुख है लेकिन शिक्षा, सभ्यता, संस्कृति के विस्तार की दिशा में बुद्धि और विवेक के साथ आगे बढ़ना है।
समारोहों, नारों या समाज सेवा के कार्यों तक सीमित न रहकर बदलते हुए परिवेश में भावी पीढ़ी के निर्माण की विशिष्ट भूमिका में हम उतर जायें। यही हमारा मुख्य कार्यक्षेत्र है। हमारा दायित्व है कि हम अपने घर की प्रत्येक परम्परा में उचितअनुचित का चिन्तन करें। परिवार में घुसपैठ करने वाली पाश्चात्य संस्कृति को रोकें। अवांछनीयता को तुरन्त नियंत्रित करें, विकास के नाम पर आधुनिकता की दौड़ से बचें। सांस्कृतिक फिसलन आज की मुख्य और चिन्तनीय समस्या है, जिसे रोकने के लिए नारी को महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है। इन कर्तव्यों को जागरूकता से पूरा करना ही नारी की सबलता का प्रतीक है।
निम्बाहेड़ा (राज.)
मैं तो अभी नहीं जन्मी हूँ, अभी तो मैं हूँ तेरे तन में। सेज बिछाकर सुख से सोई,
आंख मूंद कर करती हूँ___हर घड़ी प्रतीक्षा।
कब बीतेगी दुखद शर्वरा, जब मैं जग में आंख खोलकर,
तेरे आनन को निहार कर, बेटी बनकर तेरे आंचल में मचलूंगी,
धरती का श्रृंगार करूंगी।
पर यदि तेने रोक दिया, या धक्का देकर गिरा दिया तो,
कौन धरा की मांग भरेगा। कौन तुम्हारी वंश वृद्धि कर, जीवन में आनन्द भरेगा। नहीं जलेंगे दीप घरों में,
और न गूंजेगी शहनाई। रंगोली से सजा घरों को, कौन मनायेगा दीवाली, अर्धांगिनी के बिना, यज्ञ की कैसे होगी,
पूर्ण आहूति? बतलाओ माता बिन कैसे,
पुरुषों का अस्तित्व बनेगा, निज प्राणों का रक्त पिलाकर,
कौन उन्हें पाले पोषेगा? क्या नारी के बिना पुरुष का, है कोई वजूद इस जग में। आने दो मुझको इस जग में, मैं जग का आधार बनूंगी। यदि तूने आने दिया मुझे तो,
तेरे जैसी माता बनकर, धरती का श्रृंगार बनूंगी। माता बनकर प्यार करूंगी, जीवन का आधार बनूंगी।
सी०-२०१ जवाहर एनक्लेव जवाहर नगर, जयपुर-३०२००४
० अष्टदशी / 1030
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