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जैन गणित का
ऋषभकुमार मुरडिया
के अभाव ते मूल ग्रन्थ या संस्कृत टीका विषै प्रवेश न करहुं तिन एम०ए० (दर्शन शास्त्र, अर्थशास्त्र, इतिहास)बी० एड०) भव्य जीवन काजे इन ग्रन्थ की रचना करी है।''
अर्थात् गणित एवं गणितीय प्रक्रियाओं को सम्यक रूप से समझे बिना मूल ग्रन्थों एवं आगमों की विषय वस्तु को ठीक प्रकार से नहीं जाना जा सकता है।
जैन आगमों में 'लेहाइयाओ गणियप्पहाणाओ' अर्थात् बहत्तर कलाओं में लेख एवं गणित का ज्ञान प्रथम माना है। जैन धर्म की दोनों ही परम्पराओं में गणित का अति विशिष्ट स्थान है। दिगम्बर परम्परा में जहाँ करणानुयोग, द्रव्यानुयोग के ग्रन्थ गणितज्ञों के लिए रुचिकर हैं वही श्वेताम्बर परम्परा में भी गणितानुयोग एवं करणानुयोग के ग्रन्थ उपयोगी हैं। धर्म ग्रन्थों में निहित गणितीय ज्ञान की ओर सर्वप्रथम श्री धर जैनाचार्य द्वारा प्रणीत त्रिशतिका (पाटी गणित सार) का अजैन कृति के रूप में प्रकाशन हुआ। मद्रास सरकार ने १९१२ में एम० रंगाचार्य द्वारा गणितसार संग्रह का प्रकाशन किया जिसे जैन संप्रति गणित अथवा JAINA SCHOOL OF MATHEMATICS की संज्ञा दी गई। जैन गणित साहित्य एवं उसका गणित शास्त्र में योगदान :
जैन गणित साहित्य में महावीराचार्यकृत गणितसार संग्रह, गणितशास्त्र में योगदान श्रीधर कृत पाटीगणित, राज्यादित्य कृत व्यवहार गणित, क्षेत्र
गणित, जैन गणित सूत्रोदाहरण, सिंह तिलक सूरि कृत गणित जैन दर्शन में कर्म प्रकृतियों के आश्रव बंध, संवर एवं तिलक टीका, ठक्करफेरु कृत गणित सार कौमुदी, महिमोदय कृत निर्जरा को सम्यक् रूप से समझने, अध्यात्म के गूढ़ विषयों के गणित साठ सौ, हेमराजकृत गणितसार, आनन्दकवि कृत गणित स्पष्टीकरण में, लोक स्वरूप एवं उसके आकार प्रकार तथा सार संग्रह. गणित विलास, गणित कौष्ठक इत्यादि जैन गणितीय
र की जीव राशियों की गणना एवं परस्पर सम्बन्ध ज्ञान के प्रमुख ग्रन्थ हैं। इन सभी गणितीय ग्रन्थों के गणितीय ज्ञान को स्पष्ट करने में जैन गणित का महत्वपूर्ण योगदान है। दीक्षा, का उपयोग आधुनिक गणित शास्त्र में समाहित है। जैनागमों में पंच कल्याणक प्रतिष्ठा इत्यादि अनेक धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्ति निहित समस्त गणितीय सामग्री को स्थूल रूप से दो भागों में हेतु शुभ मुहूर्त का चयन ज्योतिष गणित से किया जाता है। जैन विभक्त किया है (१) लौकिक गणित (२) अलौकिक गणित। दार्शनिक विषयों की व्याख्या में समाहित गणितीय ज्ञान विशेषत:
लौकिक गणित के अन्तर्गत स्थानीयमान, पद्धति, अंकों के कर्म सिद्धान्त का गणित अधिक परिष्कृत एवं उपयोगी है।
प्रकार लेखन, मापन पद्धतियाँ, अंकों के परिकर्म, व्यवहार, जैनागम गणित :: एक विवेचन
ज्यामितीय, क्षेत्रफल इत्यादि, बीजगणित घातांक सिद्धान्त, जैन धर्म में विभिन्न जैनाचार्यों, विद्वानों तथा दार्शनिकों ने । लघुगणिक इत्यादि गणितीय सामग्री आती है तथा लोकोत्तर जैन गणित की महत्ता की विवेचना प्रस्तुत की
गणित के अन्तर्गत समुच्चय सिद्धान्त, एकैकी संगति, अनन्त "बहुभिर्विप्रलापैः किं त्रैलोक्ये सचराचरे,
विषयक गणित कर्म एवं निकाय सिद्धान्त आता है। लोकोत्तर यत्किचिंद्वस्तु तत्पसर्वगणितेन, बिना नाहिं।"
गणित की सामग्री अधिक सामयिक एवं गौरवपूर्ण है।
(गणितसार संग्रह) जैन आगम के स्थानांग सूत्र (ठाणा) के अध्याय १० में अर्थात् गणित के सम्यक ज्ञान के बिना जैन दर्शन को भली ७४७ वी गाथा में कहा हैप्रकार आत्मसात ही नहीं किया जा सकता है। टोडरमाल रचित दस विधे संखाणे पणत्ते तं जहा! ग्रन्थ त्रिलोकसार की पूर्व पीठिका में लिखा है- "बहरि जे जीव परिकम्मं ववहारो रज्जु रासी कलासवने (कलासबण्णे) य। संस्कृतादिक के ज्ञान सहित हैं किन्तु गणिताम्नायादिक के ज्ञान जावांतावति वग्गो घनो ततह वग्ग वग्गो विकप्पो त।
० अष्टदशी / 1040
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