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डॉ० कोठारी बोले- ऐसा है कि सन् ३२ में इन्स्टीच्यूट मैंने यह प्रसंग पढ़ा। पोथी बंद की और मेरी आत्मा गूंज उठी ऑफ एडवांस स्टडीज संस्थान ने आइंस्टीन की सेवायें लेनी न आइंस्टीन अजैन रहा और न तू। बड़ा मूल्य है जैनत्व का। चाही। वेतन कितना लेंगी? वे बोले ३००० डालर इस भोली
काल पात्र के बोल: सदाशयता से प्रभावित हो इन्स्टीच्यूट मेनेजमेन्ट ने उन्हें १० गुणा
डॉ० अलबर्ट आइंस्टीन नो, अमेरीकी काल-पात्र में रखने वेतन दिया। आइंस्टीन तो ठहरे सम्पदा अपरिग्रही। उन्होंने अपनी वेतन राशि का एक बड़ा भाग जर्मनी की एक जैन संस्था को,
__के लिए, अग्रतः सन्देश लिख भेजा। जैन पांडुलिपियों के प्रकाशन व अनुवाद हेतु समर्पित कर दिया।
“प्रिय भविष्यत्, वे सिद्धान्तवादी वैज्ञानिक थे परीक्षण प्रयोगी सावधनी।
आप हमारे मुकाबिले अधिक मानवतावादी, न्यायप्रिय, व्यावहारिक जीवन में इन्होंने साधमना जीवन जिया। वीतराग शांतिकामी, तर्क संगत नहीं होंगे तो हमारे पर शैतान की मार साधा। इससे बड़ा जैनत्व का प्रमाण और क्या?
अवश्य पड़ेगी।" डॉ० कोठारी समयपाल पक्के। भावुक स्वर में उक्त ।
देश के जैनाजैन बन्धु इस सन्देश के एक-एक अक्षर की उद्गार प्रगट कर उन्होंने कहा बात चली है जैनत्व की तो कछ चेतना तलाशें। और चलेगी। आज की वार्ता को यहीं दें आराम।
संदर्भित काल-पात्र के बोल मैंने स्वर्गीय डा० डी० एस० डॉ० कोठारी तो जन्मना से अधिक कर्मणा सिद्ध अपरिग्रही कोठारी की एक स्फुट डायरी से नोट किये। मुझे आज भी यह हुए भाव व्यवहार में पर उन्हें अपनी भौतिकी विज्ञान प्रशिक्षा व नोट, विश्व शांति का 'प्रो नोट' प्रतीत होता है। शोध की सात समंदर पार यात्रा में विश्व का महान अपरिग्रही आइंस्टीन ने अपने जीवन काल में अणुशक्ति विश्व विज्ञानी काल योगात डॉ० आइंस्टीन जैसा मिला जैनाइंस्टीन।। विनाशक तांडव हीरोशिमा व नागासाकी के प्राणी संहार में देखा, ताकि सनद रहे :
उनका दिल दहल उठा और यह बोलते-बोलते संसार से बिदा एक अस्तित्व वाद फ्रेंच साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार
हो गया कि आगामी विश्वयुद्ध होगा तो आदमी पत्थरों से लड़ेगा। एक आलू के बोरे से अधिक मूल्य का नहीं लगा। ज्यांपाल सार्च
अणु शक्ति के अमानवीय साम्राज्यवादी दुरुपयोग का नामक स्वाभिमानी था वह रचनाकार पर उससे भी आगे निकला ठीकरा इस महाविज्ञानी के सिर फोड़ने से नहीं चूका समय का एक और नोबेल पुरस्कार विजेता विज्ञान धनी अलबर्ट क्रूर वाचक। आइंस्टीन। ये महोदय डायरी लिखते थे। पर उनको १९२१ में नहीं-नहीं, जैन दर्शन के निश्चय सत्य व व्यवहार सत्य का जो संदर्भित पुरस्कार (भौतिकी में) मिला उसकी टीप इन्होंने मर्म टटोला। सापेक्ष सत्य की रोशनी दी जगत को इस अपनी डायरी में मांडी तक नहीं, नही मित्रों को पत्र लिखा। ज्ञान, मानवतावादी विज्ञान मनीषी जैनत्वधारी ने पूरी विनय के साथ। विज्ञान के इस कीर्तिमानशाली मनुष्य की आकिंचन्यता
गुप्तेश्वर नगर, उदयुपर गवेषणीय, मननीय और अनुकरणीय है। ___जब मैंने यह प्रेरक प्रसंग, बीकानेर के विश्व मान्य रसायनवेत्ता, डॉ० डी० एन पुरोहित से सुना तो मेरा मन वीतरागत्व की तह तक जा पहुंचा।
डॉ० डी० एस० कोठारी ने मुझे आइंस्टीन की जीवनी की एक पोथी दी। इस पोथी में एक रोचक प्रसंग पढ़ा। आइंस्टीन के एक गाढ़े मित्र थे लियोपोल्ड एनफील्ड। इन्होंने अपनी विज्ञानी मित्र को जैनागमों (जर्मन अनुवादित) के सूत्रों में कई बार तल्लीन देखा स्वाध्यायरत। एक दिन इसी मित्र ने मनोविनोद भाव से ही सही, पर युग सम्बोधन दे ही दिया - आइंस्टीन को 'हैलोमिस्टर जैन! की मधुर टेर के साथ।'
० अष्टदशी / 1010
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