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ओंकार श्री
महावीर का महावीरत्व
वीरता, आत्मा का जीवट है। अनन्त शक्ति धर्मा आत्मा का साक्षात्कार जिसने भी साधा वह शौर्यवान बना, 'महावीर' बना । उसे बनना कुछ नहीं था, और वह कुछ नहीं बना। सहज बन गया। जो सहज होगा वह श्रद्धा शील व विनीत होगा। काल-सत्य का आग्रही बनकर उसे सत्याग्रह नहीं करना। कारण साफ कि महावीर का समय आग्रही अनुनय विनय का नहीं, असहिष्णुता, हिंसा एवं आग्रही हठ का था, शास्त्रीय दम्भ का था महावीर चला अकेला, उसे न शास्त्र दोना था, न शास्त्राश्रयी होना था।
वह चला निर्मल मन से । चैतनन्यता चित्त की लिए वह प्रशान्त भाव से उठता, बैठता, सोता, जागता, चलता, ठहरता हर क्षण संवादित रहा, उस आत्मा से जो रमी रची-बसी थी देह में विदेह स्वरूप । वह लग्नपूर्वक संलग्न रहा अपनी उस अन्तर्यामी चेतना से जो अपने साधक को निर्धन्य पद देती है निर्बन्ध स्वरूप में स्थित करते हुए।
बर्धमान से महावीर का सम्बोधन उसे कब मिला? इसका भान हुआ ही नहीं उसे अपने काल में । उसे भान हुआ, आत्मा से आत्मा को देखने का, तलाशने का। यह शौर्य था उसकी अंतःस्फूर्त साधना का । हाँ, उसने जिस अहिंसा को भगवती कहा, उसका वाहन सिंह है, इस भान के साथ उसको सम्यग्ज्ञान, दर्शन एवम् चारित्र्य का सिंहत्व जागा । सिंह चलता है अकेला ।
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सहज समझने का सरल सूत्र यही है कि महावीर ने साधुत्व व श्रावकत्व को पहली बार कषायासुरों से जूझने के पाँच महाव्रतों के सूत्र धारे अभय मंत्र साधते हुए। महावीर की साधना कैसी थी ?
माना कि शास्त्रं ज्ञापकन तु कारकम् - पर हम तो काल के महाकारक महावीर की साधना की बात करते आचारांग शास्त्र की वीर सूत्र वाणी की ज्ञापना प्रस्तुत करते हैं कि कैसी थी महावीर की साधना ? कहता है शास्त्र :
महावीर की साधना थी
काँस्य पात्र की तरह निर्लेप,
• शंख की तरह निरंजन, राग रहित,
• जीव की तरह अप्रतिहत,
गगन की तरह आलम्बनरहित, ● वायु की तरह अप्रतिबद्ध
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शरद ऋतु के स्वच्छजल की तरह निर्मल, कमल पत्र की तरह भोग निर्लिप्त, कच्छप की तरह जितेन्द्रिय, गेंडे की तरह राग-द्वेष रहित एकाकी, पक्षी की तरह अनियत विहारी, भारण्ड की तरह अप्रमत्त,
उच्च जाति के गजेन्द्र की तरह शूर,
वृषभ के समान पराकर्मी,
सिंह की तरह दुर्द्धर्ष,
सुमेरु की तरह परिषहों के बीच अचल, सागरवत् गंभीर,
चन्द्रवत् सौम्य,
सूर्यवत् तेजस्वी,
स्वर्णवत् कान्तिमान,
पृथ्वीवत् सहिष्णु,
अग्निवत् दैदीप्यमान
महावीर अनियत बिहारी परिवारी भी !
मैं सुधी पाठक के अंत: ज्ञान के वीर धर्म के प्रति पूर्णत: आश्वस्त हूँ कि वे आचारांग शास्त्र की उक्त २१ महावीर साधना सरणियों के एक-एक सूक्ष्म पड़ाव को जांचते हुए निश्चित रूप से टोह लेंगे महावीर के साधना-शौर्य के लोकधर्मी कल्याणपथ को ।
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महावीर लोकवासी थे। जनवाणी के वाग्मी थे, मौन वाचा के परमवीर कि ब्राह्मण, श्रमण सब उनके सम्मुख रहे एक घाट पर अध्यात्म स्वाध्याय प्रतिक्रमण रत, सामायिकी साधते
अष्टदशी / 97
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