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२.
इसिमा
विद्यार्थी कैसा होना चाहिये, इसकी चर्चा करते हुए सन्दर्भ : उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि जो भिक्षाजीवी, विनीत, १. बाइबिल, उद्धत नये संकेत, आचार्यरजनीश, पृ. ५७ सज्जन व्यक्तियों के गुणों को जानने वाला, आचार्य के मनोभावों
इसिभासियाई, १७/१ के अनुरूप आचरण करने वाला, सर्दी-गर्मी भूख-प्यास आदि आचारांग. १/१/१ को सहन करने वाला, लाभ-अलाभ में विचलित नहीं होने वाला,
कठोपनिषद, ३/३ सेवा तथा स्वाध्याय हेतु तत्पर, अहंकार रहित और आचार्य के
५. आचारांग, २/३/१५/१ कठोर वचनों को सहन करने में समर्थ शिष्य ही शिक्षा का
सूत्रकृतांग, १/१२/११ अधिकारी है।३१ ग्रन्थकार यह भी कहता है कि शास्त्रों में शिष्य
उत्तराध्ययन, ३२/२ की जो परीक्षा विधि कही गयी है उसके माध्यम से शिष्य की
वही, २९/६० परीक्षा करके ही उसे मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त करना चाहिये।३२ ।।
९. वही, ३२/२ उत्तराध्ययन सूत्र में शिष्य के आचार-व्यवहार के सन्दर्भ में
१०. वही, ३२/१०२-१०६ निर्देश करते हुए कहा गया है कि जो शिष्य गुरु के सान्निध्य में
११. दशवैकालिक, ९/४ रहता है, गुरु के संकेत व मनोभावों को समझता है, वही विनीत
१२. चन्द्रवेध्यक, ६२ कहलाता है, इसके विपरीत आचरणवाला अविनीत। योग्य शिष्य
१३. वही, ५६ सदैव गुरु के निकट रहे, उनसे अर्थ पूर्ण बात सीखे और निरर्थक
१४. वही, ६४ बातों को छोड़ दे, गुरु द्वारा अनुशासित होने पर क्रोध न करे,
१५. वही, ६८ शूद्र व्यक्तियों के संसर्ग से दूर रहे, यदि कोई गलती हो गयी
१६. उत्तराध्ययनसूत्र, ११/३ हो तो उसे छिपाये नहीं अपितु यथार्थ रूप में प्रकट कर दे। बिना
१७. वही, ११/४-५ पूछे गुरु की बातों मे बीच में न बोले, अध्ययन काल में सदैव
१८. चन्द्रवेध्यक, ७७ अध्ययन करे। आचार्य के समक्ष बराबरी से न बैठे, उनके आगे,
१९. रायपसेनीयसुत्त (घासीलालजी म.) सूत्र ९५६, पृ. ३३८न पीछे सटकर बैठे। गुरु के समीप उनसे अपने शरीर को सटाकर भी नहीं बैठे, बैठे-बैठे ही न तो कुछ पूछे और न उत्तर
२०. समवायांग-समवाय ७२ (देखें-टीका) दे। गुरु के समीप उकडू आसन से बैठकर हाथ जोड़कर जो
२१. रायसेनीयसुत्त (घासीलालजी म.) सूत्र ९५६, पृ. ३३८पूछना हो उसे विनयपूर्वक पूछे । ३३
३४१ ये सभी तथ्य यह सूचित करते हैं कि जैन शिक्षा व्यवस्था
२२. वही, पृ. ३३८-३४१ में शिष्य के लिए अनुशासित जीवन जीना आवश्यक था। यह
२३. चन्द्रवेध्यक, २० कठोर अनुशासन वस्तुत: बाहर से थोपा हुआ नहीं था, अपितु
२४. वही, ५१-५३ मूल्यात्मक शिक्षा के माध्यम से इसका विकास अन्दर से ही होता
२५. वही, २५, २६ था। क्योंकि जैन शिक्षा व्यवस्था में सामान्यतया शिष्य में ताड़न
२६. वही, ३० वर्जन की कोई व्यवस्था नहीं थी। आचार्य और शिष्य दोनों के ।
२७. भगवतीआराधना, ५२८ लिए ही आगम में उल्लेख अनुशासन का पालन करना
२८. वही, टीका आवश्यक था। जैन शिक्षा विधि में अनुशासन आत्मानुशासन
२९. स्थानांग-स्थान, ८/१५ था। व्यक्ति को दूसरे को अनुशासित करने का अधिकार तभी
३०. प्रवचन सारोद्धार, द्वार ६४ माना गया था, जब वह स्वयं अनुशासित जीवन जीता हो।
३१. देखें - उत्तराध्ययनसूत्र, अध्याय १ एवं ११ आचार्य तुलसी ने निज पर शासन फिर अनुशासन का जो सूत्र
३२. चन्द्रवेध्यक, ५३ दिया है वह वस्तुत: जैन शिक्षा विधि का सार है। शिक्षा के साथ
३३. उत्तराध्ययनसूत्र, १/२-२२ जब तक जीवन में स्वस्फूर्त अनुशासन नहीं आयेगा, तब तक वह सार्थक नहीं होगी।
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० अष्टदशी/960
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