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________________ धर्माचार्य अपरिग्रही होने के कारण अपने प्रति श्रद्धाभाव को दृष्टिकोण हैं। भगवतीआराधना में आचारत्व आदि ८ गुणों के छोड़कर अन्य कोई अपेक्षा नहीं रखते थे। यहाँ यह भी ज्ञातव्य साथ-साथ १० स्थित कल्प १२ तप और ६ आवश्यक, ऐसे है कि शिल्पाचार्य और कलाचार्य सामान्यतया गृहस्थ होते थे ३६ गुण माने गये हैं।२७ इसी के टीकाकार अपराजितसूरि ने और इसलिए उन्हें अपने पारिवारिक दायित्वों को सम्पन्न करने ८ ज्ञानाचार, ८ दर्शनाचार, १२ तप, ५ समिति और ३ गुप्ति के लिए शिष्यों से मुद्रा आदि की अपेक्षा होती, किन्तु धर्माचार्य ये ३६ गुणों माने हैं।२८ श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांग में आचार्य की स्थिति इससे भिन्न थी, वे सामान्य रूप से सन्यासी और को आठ प्रकार की निम्न गणि सम्पदाओं से युक्त बतलाया गया अपरिग्रही होते थे, अत: उनकी कोई अपेक्षा नहीं होती थी। है- १. आचार सम्पदा, २. श्रुत सम्पदा, ३. शरीर सम्पदा, ४. वस्तुतः नैतिकता और सदाचार की शिक्षा देने का अधिकारी वचन सम्पदा, ५. वाचना सम्पदा, ६. मति सम्पदा, ७, प्रयोग वही व्यक्ति हो सकता था जो स्वयं अपने जीवन में नैतिकता का सम्पदा (वादकौशल) और ८. संग्रह परिज्ञा (संघ व्यवस्था में आचरण करता हो और यही कारण था कि उसके उपदेशों एवं निपुणता)।२९ प्रवचनसारोद्धार में आचार्य के ३६ गुणों का तीन आदेशों का प्रभाव होता था। आज हम नैतिक एवं आध्यात्मिक प्रकार से विवेचन किया गया है। सर्वप्रथम उपरोक्त ८ गणि शिक्षा देने का प्रथम तो कोई प्रयत्न ही नहीं करते दूसरे उसकी सम्पदा के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से ३२ भेद अपेक्षा हम उन शिक्षकों से करते हैं जो स्वयं उस प्रकार का होते हैं, इनमें आचार्य, श्रुत, विक्षेपणा और निर्घाटन-ये विनय में जीवन नहीं जी रहे होते हैं, फलत: उनकी शिक्षा को कोई प्रभाव चार भेद सम्मिलित करने पर कुल २४ भेद होते हैं, इनमें १२ भी नहीं होता। यही कारण है कि आज विद्यार्थियों में चरित्र-निष्ठा प्रकार का तप मिलाने पर ३६ भेद होते हैं, प्रकारान्तर से का अभाव पाया जाता है क्योंकि यदि शिक्षक स्वयं चरित्रवान ज्ञानाचार, दर्शनाचार और चारित्राचार के आठ-आठ भेद करने नहीं होगा तो वह अपने विद्यार्थियों को वैसी शिक्षा नहीं दे पायेगा, पर २४ भेद होते हैं। उनमें १२ प्रकार का तप मिलाने पर ३६ कम से कम धर्माचार्य के सन्दर्भ में तो यह बात आवश्यक है। भेद होते हैं। कहीं-कहीं आठ गण सम्पदा, १० स्थितिकल्प, १२ जब तब उसके जीवन में चारित्रिक और नैतिक मूल्य साकार तप ओर ६ आवश्यक मिलाकर आचार्य में ३६ गुण माने गये नहीं होंगे, वह अपने शिष्यों पर उनका प्रभाव डालने में समर्थ नहीं हैं, प्रवचनसारोद्धार के टीकाकार ने आचार्य के निम्न ३६ गुणों होगा। चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक कहता है कि सम्यक शिक्षा के का भी उल्लेख किया है- १. देशयुत, २. कुलयुत, ३. प्रदाता आचार्य निश्चय ही सुलभ नहीं होते।२३ जातियुत, ४. रूपयुत, ५. संहननयुत, ६. घृतियुत, ७. जैन आगमों में इस प्रश्न पर भी गम्भीरता से विचार किया अनाशंसी, ८. अविकत्थन, ९. अयाची १०. स्थिर परिपाटी गया है कि शिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी कौन है? ११. गृहीतवाक्य, १२. जितपर्षतु, १३. जितनिद्रा, १४. चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में उन व्यक्तियों को शिक्षा के अयोग्य मध्यस्थ, १५. देशज्ञ, १६. कालज्ञ, १७. भावज्ञ, १८. माना गया है, जो अविनीत हों, जो आचार्य का और विद्या का आसन्नलब्धप्रतिम, १९. नानाविध देश भाषज्ञ, २०. ज्ञानाचार, तिरस्कार करते हों, मिथ्या दृष्टिकोण से युक्त हों तथा मात्र २१. दर्शनाचार, २२. चारित्राचार, २३. तपाचार, २४. सांसारिक भोगों के लिए विद्या प्राप्त करने की आकांक्षा रखते वीर्याचार, २५. सूत्रपात, २६. आहरलनिपुण, २७. हेतुनिपुण, हों।२४ इसी प्रकार योग्य आचार्य कौन हो सकता है इसकी चर्चा २८. उपनयनिपुण, २९. नयनिपुण, ३०. ग्राहणाकुशल, ३१. करते हुए कहा गया है कि जो देश और काल का ज्ञाता. अक्षर स्वसमयज्ञ, ३२. परसमयज्ञ, ३३. गम्भीर, ३४. दीप्तिमान, को समझने वाला अभ्रान्त, धैर्यवान अनुवर्त्तक और अमायावी ३५. कल्याण करने वाला और ३६ सौम्य।३० होता है, साथ ही लौकिक, आध्यात्मिक और वैदिक शास्त्रों का इन गुणों की चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन आगमों ज्ञाता होता है, वही शिक्षा देने का अधिकारी है। इस ग्रन्थ में में आचार्य कैसा होना चाहिये इस प्रश्न पर गम्भीरता पूर्वक आचार्य की उपमा दीपक से दी गयी है। दीपक के समान आचार्य विचार किया था और मात्र चरित्रवान एवं उच्च मूल्यों के प्रति स्वयं भी प्रकाशित होते हैं और दूसरों को भी प्रकाशित करते निष्ठावान व्यक्ति को ही आचार्यत्व के योग्य माना गया था। इससे यह फलित भी होता है कि जो साधक अहिंसादि श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में आचार्य के महाव्रतों का स्वयं पालन करता है तथा आजीविका अर्जन हेतु गुणों की संख्या ३६ स्वीकार की गयी हैं किन्तु ये ३६ गुण मात्र भिक्षा पर निर्भर रहता है जो स्वार्थ से परे हैं, वही व्यक्ति कौन-कौन हैं इस सम्बन्ध में विभिन्न ग्रन्थकारों के विभिन्न आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का शिक्षक होने का अधिकारी है। ० अष्टदशी/950 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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