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चारित्रिक गुणों का विकास करना था। वे शील और सदाचार की जहाँ तक आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा का प्रश्न था यह शिक्षा देते थे। इस प्रकार प्राचीन काल में शिक्षा को तीन भागों धर्माचार्य के सान्निध्य में उपदेशों के श्रवण के माध्यम से प्राप्त में विभक्त किया गया था और इन तीनों विभागों का दायित्व की जाती थी। इसके लिए व्यक्ति को कुछ व्यय नहीं करना होता तत्-तत् विषयों के आचार्य निर्वाह करते थे।
है। सामान्यतया श्रमण परम्परा में धर्माचार्य भिक्षाचर्या से ही जैन परम्परा में कलाचार्य, शिल्पाचार्य और धर्माचार्य के अपनी उदरपूति करते थे और उनके कोई स्थायी आश्रम आदि जो निर्देश उपलब्ध होते हैं उनसे ऐसा लगता है कि भारतीय भी नहीं होते थे, अत: वे व्यक्ति और समाज पर भार स्वरूप चिन्तन में जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चार पुरुषार्थों की शिक्षा नहीं होते थे। इसके विपरीत वैदिक परम्परा में धर्माचार्य की व्यवस्था अलग-अलग तीन आचार्यों के लिए नियत की गई सपरिवार अपने आश्रमों में रहते थे तथा धर्माचार्य और कलाचार्य थी। शिल्पाचार्य का कार्य अर्थ पुरुषार्थ की शिक्षा देना था, तो ।
का कार्य एक ही व्यक्ति करता था कुछ कलाचार्य सम्पन्न कलाचार्य का काम भाषा, लिपि और गणित की शिक्षा के साथ
व्यक्तियों या राजाओं या सामन्तों के घर जाकर भी शिक्षा प्रदान साथ काम पुरुषार्थ की शिक्षा देना था। धर्माचार्य का कार्य मात्र
करते थे फिर भी सामान्यतया, वे शिक्षा अपने आश्रमों में ही धर्म और मोक्ष पुरुषार्थ से ही सम्बन्धित था इस प्रकार विविध
प्रदान करते थे। आश्रम पद्धति की विशेषता यह थी कि विद्यार्थी जीवन मूल्यों की शिक्षा के लिए विविध आचार्यों की व्यवस्था
और शिक्षक अपनी आजीविका या तो अपने श्रम से उपार्जित थी, चूँकि जैनधर्म में मूलत: एक निवृत्ति मूलक की शिक्षा के
करते अथवा भिक्षाचर्या के माध्यम से उसकी पूर्ति करते। लिए विविध आचार्यों की व्यवस्था थी। चूँकि जैनधर्म मूलत: एक
इसलिए उस युग में शिक्षा न तो व्यक्ति पर भार स्वरूप थी ओर निवृत्ति मूलक और संन्यासपरक धर्म था इसलिए धर्माचार्य का न राज्य पर । समृद्ध व्यक्ति अथवा राजा समय-समय पर दारादि कार्य धर्म और मोक्ष की पुरुषार्थ की शिक्षा देने तक ही सीमित देकर शिक्षकों को सम्मानित अवश्य करते थे। विद्यार्थी भी रखा गया था। इस प्रकार जीवन के विविध मूल्यों के आधार पर अपनी शिक्षापूर्ण करने के पश्चात् जब स्वयं आजीविका अर्जन शिक्षा की व्यवस्था भी अलग-अलग थी। आज हम सम्पूर्ण
आज म करने लगता, तो वह भी गुरु दक्षिणा देकर अपने गुरु को जीवन मूल्यों के लिए जो एक ही प्रकार की शिक्षा व्यवस्था की
सम्मानित करता था। फिर भी यह समग्र व्यवस्था मूलत:
सम्मानित करता था। फि बात करते हैं. वह मल में भ्रांति है. जहाँ शिल्पाचार्य और ऐच्छिक थी। शिल्पाचार्य आजीविका अर्जन से सम्बन्धित कलाचार्य वत्तिमलक शिक्षा प्रदान करते थे वहाँ धर्माचार्य निवनि विभिन्न शिल्पों की शिक्षा देते थे। विद्यार्थी शिल्पाचार्य के मूलक शिक्षा प्रदान करते थे। पुन: यह भी आवश्यक है कि जो सान्निध्य में रहकर ही शिल्प सीखते थे। इसमें शिक्षण और आचार्य जिस प्रकार की जीवन शैली जीता है, वह वैसी ही शिक्षा आजीविका अर्जन की प्रक्रिया साथ-साथ ही चलती थी। प्रदान कर सकता है। अतः धर्माचार्य से अर्थ और काम की
सामान्यतया शिक्षा पिता-पुत्र की परम्परा से चलती थी। किन्तु शिक्षा और शिल्पाचार्य एवं कलाचार्य से धर्म एवं मोक्ष पुरुषार्थ कभी-कभी व्यक्ति दूसरों के सान्निध्य में भी ऐसी शिक्षा प्राप्त की शिक्षा की अपेक्षा करना उचित नहीं है। वर्तमान सन्दर्भ में करता था। "रायपसेनीय" में स्पष्ट रूप में यह उल्लिखित है यह आवश्यक है कि हम शिक्षा के विविध क्षेत्रों का दायित्व कि किस प्रकार के शिक्षक को किस प्रकार से सम्मानित करना विविध आचार्यों को सौंपे और इस बात का विशेष ध्यान रखें चाहिये। शिल्पाचार्य और कलाचार्य के सम्मान की पद्धति कि जो व्यक्ति जिस प्रकार की शिक्षा देने के योग्य हो, वही
धर्माचार्य के सम्मान की पद्धति से भिन्न थी। कलाचार्य और उसका दायित्व सम्भालें। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक
शिल्पाचार्य की शिष्यगण तेलमालिश, स्नान आदि के द्वारा न शिक्षा के क्षेत्र में मानव के सर्वांगीण विकास की कल्पना सार्थक केवल शारीरिक सेवा करते थे, अपितु उन्हें वस्त्र, आभूषण आदि नहीं होगी। "रायपसेनीयसुत्त' में कलाचार्य, शिल्पाचार्य और से अलंकृत कर सरस भोजन करवाते थे तथा उनकी आजीविका धर्माचार्य की व्यवस्था दी गयी है इससे यह स्पष्ट होता है कि एवं उनके पुत्रादि के भरण-पोषण की योग्य व्यवस्था भी करते शिक्षा के ये तीनों क्षेत्र मानव जीवन के तीन मल्यों से सम्बन्धित थे। दूसरी ओर धर्माचार्य को वन्दन नमस्कार करना. उसके थे तथा एक-दूसरे से पृथक थे और सामान्य व्यक्ति तीनों ही उपदेशों को श्रद्धापूर्वक सुनना, भिक्षार्थ आने पर आहारादि से प्रकार की शिक्षायें प्राप्त करता था, फिर भी प्राचीनकाल में यह
उसका सम्मान करना- यही शिक्षार्थी का कर्तव्य माना गया शिक्षा पद्धति व्यक्ति के लिये भार स्वरूप नहीं थी।
था।२२ ज्ञातव्य है कि जहाँ शिल्पाचार्य और कलाचार्य अपने शिष्यों से भमि, मुद्रा आदि के दान की अपेक्षा करते थे, वहाँ
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