________________
सामयिक रहे सभी वर्ग के, समाज के। उस वीतराग की अन्त: वाणी का अपूर्व था मुखर मौन यह वीरत्व अपरिमेय है अंतिम जैन तीर्थंकर की अद्यावधि मर्यादा का
बहुत कुछ अनकहा कहा, महावीर वाणी की श्रुत परम्परा ने ऐसा खुला खुला ऐसा खिला-खिला तीर्थंकर महावीर ही तो थो जो अपने समय में ज्योतिषी पुष्प से कहा- मैं परिवार के साथ हूँ ।
• संवर निर्विकल्प ध्यानी है मेरा पिता,
• अहिंसा है मेरी माँ,
• ब्रह्मचर्य है भाई,
अनासक्ति है बहिन,
• शांति मेरी प्रिया,
• विवेक है मेरा पुत्र. क्षमा मेरी पुत्री
• सत्य है मेरा मित्र, उपशम मेरा गृह है,
ज्योतिषी मान गया वीरंकर महावीर का कि यह तो चक्रवर्ती भगवंत है कि जिसका धर्मचक्रप्रबल है, दिव्य है इसका आचार-छत्र !
सौदागर नहीं होता 'धम्मवीर'
महावीर की दशाब्दियों की मौन वाचा को सूत्रों में पिरोतेपिरोते थक गए टीकाकार, भाष्यवेत्ता और मीमांसक ।
उन सभी पुरार्वाचीन विद्वानों एवं निश्छल श्रावकों को अब आज के प्रतिभारत-भारत सहित विश्व के समस्त आध्यात्मिकों, वैज्ञानिकों को एवम प्रज्ञानियों को बता देना चाहिये कि महावीर की अहिंसा वाणी कायरों की नहीं यह अभया गिरा है मनुष्य जाति के स्वाभिमान की रक्षा शक्ति है। शस्त्रों व शास्त्रों के सौदागर नहीं निष्काम कर्मयोगी होते हैं। तपस्वी महावीर, बुद्ध गाँधी कि कोई मार्टिन लूथर किंग। महावीर ने एक सिद्ध काल गणितज्ञ की सिद्धि पाई, यह युग- सत्य बीसवीं सदी के ढलते-ढलते पश्चिमी जगत ने जाना और माना महावीर मेथामेटिशयन ने सीधी रेखा की ज्यामिति की वीरजयी लकीर खींची काल पटल पर कि बिन्दु अनन्त अणिमा धर्मी है कि जिसके बैन्दव-विस्तार से खिंचती है एक लकीर । महावीर की खिंची यह लकीर, लकीर के फकीरों के लिए नहीं।
यह काल रेखा की सीध है त्याग की, तप की, साधनातन्मयता की, यह रेखा बोलती है, समय का स्वर पट खोलती है वीर भाव सहित कि
Jain Education International
पर वस्तु रमण / आत्मगुण घात / कैसा अहिंसक ? पर पुदगल को स्व जो कथे कैसा सत्यवादी ? बिना पुदगल आज्ञा करे ग्रहण कैसा अचौर्यव्रत ? जो पुदगल भोगे वह कैसा ब्रह्मचारी ?
नाम रूप पद मूर्च्छापरिग्रही - वो कैसा त्यागी ? - भँवरलाल नाहटा महावीर नाम न बनावट का, न बुनावट का । वह तो प्रशान्त वीर हैं अहिसक कान्तिपथ का वह हर युग का हर वर्ग का है। महावीरत्व व्याख्या नहीं चाहता
-
हम व्यक्ति है हदपार । मनुष्य बनने की बातें बघारने से आदमी अनादमी ही बना रहता है । बनो मत कुछ। महावीर ने काल को सुना । गुणा अनन्त ज्ञान, भणा और चुना तो वो पंथ जिसे नहीं साध पाता हर कोई बात एक दम सीधी सी यह है कि हम अपने से अपनों के मोह से, लोभ से, लाभ से कसकर बन्धे हैं। इस बन्ध से हुण्डा सर्पिणी काल खंड में विरला ही बचा है कोई श्रमण कि श्रावक कि कोई भक्त भावक । बन्ध की इस धक्कम पेल में हमारा पूर्व भव कर्म संचित पुण्य ले जाये यदि में धर्म सभा की ओर तो इस किंचित पुण्य योग को न गंवायें, हम झूठी प्रतिज्ञाओं से बचें, देखा-देखी की नामवरी से बचें तो हमें स्वाध्याय काल में निकटता मिलेगी जरूर महावीर की कि जिसके आगे और पीछे ऊपर-नीचे जीवन जीने को धम्म कला' की गूंज है।
दिव्य ध्वनि को पानेवाले विरलतम सहयोगियों में अग्रणी महावीर भाव रूप विद्यमान है हम सबके हृदयों में । कषाय-पट खुलें तो अहसासें अपने आंतरिक महावीरत्व को, धर्म पुरुषार्थ को, सत्यमार्गी शौर्य को आत्मा के ओजस और तेजस को हम पा ही लेंगे- इरादा पाक हो और लगन पक्की तो निराश नहीं करेगा हमें हमारा अर्हत्!
सूर्य की कोई परिभाषा नहीं इस तरह वीर धर्मव्रती होकर यदि हम नहीं है अविश्वासी तो महावीरत्व की व्याख्या फिर क्या ? मनसा, वाचा, कर्मणा जो भाव-हिंसा से मुक्त रहे वो महावीरत्व का धनी है। जो डरा हुआ है अपने कदाचार से वह महावीर का होता कौन है ?
विश्व हितंकर तीर्थंकर थे महावीर
भगवान महावीर का समय, हिंसाजन्य पशु बलियों का, क्षत्रपों के दुखद संघर्षों का, वैदिकी असहिष्णुता, सामाजिक दैन्य एवम घोर नास्तिकता का था। युद्धों व संघर्षों की अतिचारी हिंसा का सामना किया युग-कल्प महावीर ने आत्मा की प्रशान्त सहिष्णुता के बल पर अकलानीय पीड़ायें सही क्रूर प्रतिपक्षियों
।
० अष्टदशी / 98
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org