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अमेरिका (U.S.A.) जैसे विकसित देशों का व्यक्ति अधिक हम भूल रहे हैं। वर्तमान सन्दर्भ में फिराक का यह कथन कितना सुखी होता, किन्तु हम देखते हैं वह संत्रास और तनाव से अधिक सटीक है, जब वे कहते हैग्रस्त है। यह सत्य है कि मनुष्य के लिये रोटी आवश्यक है,
सभी कुछ हो रहा है, इस तरक्की के जमाने में, लेकिन वही उसके जीवन की इति नहीं है, ईसामसीह ने ठीक ही
मगर क्या गजब है कि आदमी इनसां नहीं होता। कहा था कि मनुष्य केवल रोटी से नहीं जी सकता है। हम मनुष्य
आज की शिक्षा चाहे विद्यार्थी को वकील, डाक्टर, को भौतिक सुखों का अम्बार खड़ा करके भी सुखी नहीं बना
इंजीनियर आदि सभी कुछ बना रही है, किन्तु यह निश्चित है सकते। सच्ची शिक्षा वही है जो मनुष्य को मानसिक संत्रास ओर
कि इन्सान नहीं बना पा रही है। जब तक शिक्षा को चरित्र निर्माण तनाव से मुक्त कर सके। उसमें सहिष्णुता,समता, अनासक्ति,
के साथ नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के साथ नहीं जोड़ा जाता कर्तव्यपरायणता के गुणों को विकसित कर, उसकी स्वार्थपरता
है तब तक वह मनुष्य का निर्माण नहीं कर सकेगी। हमारा पर अंकुश लगा सके। जो शिक्षा मनुष्य में मानवीय मूल्यों का
प्राथमिक दायित्व मनुष्य को मनुष्य बनाना है। बालक को विकास न कर सके उसे क्या शिक्षा कहा जा सकता है? यह
मानवता के संस्कार देना है। अमेरिका के प्रबुद्ध विचारक टफ्ट्स हमारा दुर्भाग्य ही है कि आज शिक्षा का सम्बन्ध "चारित्र' से
शिक्षा के उद्देश्य, पद्धति और स्वरूप को स्पष्ट करते हुए लिखते नही "रोटी'' से जोड़ा जा रहा है। आज शिक्षा की सार्थकता को
है- “शिक्षा चरित्र निर्माण के लिये, चरित्र द्वारा चरित्र की शिक्षा चरित्र-निर्माण में नहीं, चालाकी (डिप्लोमेसी) में खोजा जा रहा है।
है।'' इस प्रकार उनकी दृष्टि में शिक्षा का अथ और इति दोनों शासन भी इस मिथ्या धारणा से ग्रस्त है। नैतिक शिक्षा या चरित्र
ही बालकों में चरित्र निर्माण एवं सुसंस्कारों का वपन है। भारत की शिक्षा में शासन को धर्म की "बू' आती है, उसे अपनी
की स्वतन्त्रता के पश्चात् शिक्षा के स्वरूप का निर्धारण करने धर्मनिरपेक्षता दूषित होती दिखाई देती है, किन्तु क्या धर्म
हेतु सुप्रसिद्ध दार्शनिक डॉ० राधाकृष्णन, सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ० निरपेक्षता का अर्थ धर्महीनता या नीतिहीनता है? मैं समझता हूँ
दौलतसिंह कोठारी और शिक्षा शास्त्री, डा० मुदालियर की धर्म निरपेक्षता का मतलब केवल इतना ही है कि शासन किसी
अध्यक्षताओं में जो विभिन्न आयोग गठित हुये थे उन सबका धर्म विशेष के साथ आबद्ध नहीं रहेगा। आज हुआ यह है कि धर्म
निष्कर्ष यही था कि शिक्षा को मानवीय मूल्यों से जोड़ा जाय। निरपेक्षता के नाम पर इस देश में शिक्षा के क्षेत्र से नीति और
जब तक शिक्षा मानवीय मूल्यों से नहीं जुड़ेगी, उसमें चारित्र की शिक्षा को भी बहिष्कृत कर दिया गया है। चाहे हम
चरित्रनिर्माण और सुसंस्कारों के वपन का प्रयास नहीं होगा, तब अपने मोनोग्रामों में "सा विद्या या विमुक्तये' की सूक्तियाँ
तक विद्यालयों एवं महाविद्यालयों रूपी शिक्षा के इन कारखानों उद्धृत करते हों। किन्तु हमारी शिक्षा का उससे दूर का भी कोई
से साक्षर नहीं राक्षस ही पैदा होंगे। रिश्ता नहीं रह गया है। आज की शिक्षा योजना में आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों की शिक्षा का कोई स्थान नहीं है, जबकि उच्च
भारतीय चिन्तन प्राचीनकाल से ही इस सम्बन्ध में सजग शिक्षा एवं माध्यमिक शिक्षा के सम्बन्ध में अभी तक बिठाये गये
रहा है। औपनिषदिक युग में ही शिक्षा के उद्देश्य को स्पष्ट करते तीनों आयोगों ने अपनी अनुशंसाओं में आध्यात्मिक एवं नैतिक
हुए कहा गया था- सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् विद्या वही मूल्यों की शिक्षा की महती आवश्यकता प्रतिपादित की है। आज
जो विमुक्ति प्रदान करे। प्रश्न हो सकता है कि यहाँ विमुक्ति से का शिक्षक शिक्षार्थी दोनों ही अर्थ के दास हैं। एक ओर शिक्षक
हमारा क्या तात्पर्य है? विमुक्ति का तात्पर्य मानवीय संत्रास और इसलिये नहीं पढ़ाता है कि उसे विद्यार्थी के चरित्र निर्माण या
तनावों से मुक्ति है, अपनत्व और ममत्व के शुद्ध घेरों से विकास में कोई रुचि है, उसकी दृष्टि केवल वेतन दिवस पर ।
विमुक्ति है। मुक्ति का तात्पर्य है- अहंकार, आसक्ति, राग-द्वेष टिकी है, वह पढ़ने के लिये नहीं पढ़ाता, अपितु पैसे के लिए
और तृष्णा से मुक्ति। यही बात जैन आगम इसिभासियाई पढ़ाता है। दूसरी ओर शासन, सेठ और विद्यार्थी उसे गुरु नहीं (ऋषभासत) में कहा गई है"नौकर'' समझते हैं। जब गुरु नौकर है तो फिर संस्कार एवं इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण उत्तमा। चरित्र निर्माण की अपेक्षा करना ही व्यर्थ है। आज तो गुरु शिष्य जं विज्जं साइहत्ताणं सव्वदुक्खाण मुच्चती।। के बीच भाव-मोल होता है, सौदा होता है। चाहे हमारे प्राचीन ग्रन्थों जेण बन्धं न मोक्खं च, जीवाणं गतिरागति। में "विद्यायाऽमृतमश्नुते' की बात कही गई है हो, किन्तु आज आयाभावं च जाणाति, सा विज्जया दुक्खमोयणी।। तो विद्या अर्थकरी हो गयी है। शिक्षा के मूल-भूत उद्देश्यों को ही
-इसिभासियाई, १७/१-२
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