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________________ जैन आगमों में मूल्यात्मक प्रो० सागरमल जैन पनप रही है, उसका कारण शिक्षा की यही गलत दिशा ही है। हम शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति को सूचनाओं से भर देते हैं, किन्तु उसके व्यक्तित्व का निर्माण नहीं करते हैं। वस्तुत: आज शिक्षा का उद्देश्य ही उपेक्षित है। आज शिक्षक और शिक्षार्थी, शासक और समाज कोई भी यह नहीं जानता कि हम क्यों पढ़ रहे हैं और क्यों पढ़ा रहे हैं? यदि वह जानता भी है तो या तो वह उदासीन है या फिर अपने को अकर्मण्यता की स्थिति में पाता है। आज शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र अराजकता है। इस अराजकता या दिशाहीनता की स्थिति के सम्बन्ध में भी जो कुछ चिन्तन हुआ है, उसे शिक्षा को आजीविका से जोड़ने के अतिरिक्त कुछ नहीं हुआ। वर्तमान में रोजगारोन्मुख शिक्षा न होने से ही आज समाज में अशान्ति है, किन्तु मेरी दृष्टि में वर्तमान सामाजिक संघर्ष और तनाव का कारण व्यक्ति का जीवन के उद्देश्यों या मूल्यों के सम्बन्ध में अज्ञान या गलत दृष्टिकोण ही है। स्वार्थपरक भौतिकवादी जीवन-दृष्टि ही समस्त मानवीय दु:खों का मूल है। सबसे पहले हमें यह निश्चय करना होगा कि हमारी शिक्षा का प्रयोजन क्या है? यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का प्रयोजन रोजी-रोटी कमाने या मात्र उदरपूर्ति के योग्य बना देना है, तो यह एक भ्रान्त धारणा होगी। क्योंकि रोजी-रोटी की व्यवस्था तो वर्तमान युग ज्ञान-विज्ञान का युग है। मात्र बीसवीं सदी में अशिक्षित भी कर लेता है। पशु-पक्षी भी तो अपना पेट भरते ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में जितना विकास हुआ, उतना विकास ही हैं। अत: शिक्षा को रोजी-रोटी से जोड़ना गलत है। यह सत्य मानवजाति के अस्तित्व की सहस्त्रों शताब्दियों में नहीं हुआ था, है कि बिना रोटी के मनुष्य का काम नहीं चल सकता। दैहिक आज ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा एवं शोधकार्य में संलग्न सहस्रों जीवन मूल्यों में उदरपूर्ति व्यक्ति की प्राथमिक आवश्यकता है, विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और शोध-केन्द्र है। यह सत्य है इससे इंकार भी नहीं किया जा सकता है किन्तु इसे ही शिक्षा कि आज मनुष्य ने भौतिक जगत के सम्बन्ध में सूक्ष्मतम ज्ञान का “अथ और इति" नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि यह कार्य प्राप्त कर लिया है। आज उसने परमाणु को विखण्डित कर शिक्षा के अभाव में भी सम्भव है। यदि उदरपूर्ति/आजीविका अर्जन ही जीवन का एक मात्र लक्ष्य हो तो फिर मनुष्य पशु से उसमें निहित अपरिमित शक्ति को पहचान लिया है, किन्तु यह भिन्न नहीं होगा। कहा भी हैदुर्भाग्य ही है कि शिक्षा एवं शोध के इन विविध उपक्रमों के माध्यम से हम एक सभ्य, सुसंस्कृत एवं शान्तिप्रिय मानव "आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतद पशुभि: नराणाम्। समाज की रचना नहीं कर सके। ज्ञानो हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेनहीना नर पशुभिः समाना।" वस्तुतः आज की शिक्षा हमें बाह्य जगत और दूसरों के पुन: यदि यह कहा जाय कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारी प्रदान कर देती है, किन्तु उन अधिक सुख-सुविधा पूर्ण जीवन-जीने योग्य बनाना है, तो उसे भी उच्च जीवन मूल्यों के सम्बन्ध में वह मौन ही है, जो एक सुसभ्य हम शिक्षा का उद्देश्य नहीं कह सकते। क्योंकि मनुष्य के दुःख समाज के लिये आवश्यक है। आज शिक्षा के माध्यम से हम ज शिक्षा के माध्यम से हम और पीड़ाएँ भौतिक या दैहिक स्तर की ही नहीं है, वे मानसिक विद्यार्थियों को सूचनाओं से तो भर देते हैं, किन्तु उन्हें जीवन के स्तर की भी हैं। सत्य तो यह है कि स्वार्थपरता, भोगाकांक्षा और उद्देश्यों और जीवन मूल्यों के सन्दर्भ में हम कोई जानकारी नहीं तृष्णाजन्य मानसिक पीड़ाएँ ही अधिक कष्टकर हैं, वे ही देते हैं। आज समाज में जो स्वार्थपरताजन्य, संघर्ष और हिंसा मानवजाति में भय एवं संत्रास का कारण है। यदि भौतिक सुख सुविधाओं का अम्बार लगा देने में ही सुख होता है जो आज ० अष्टदशी / 900 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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