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डॉ० कहानी मानावत
यह ठीक ही कहा गया कि "साहित्य की एक धारा उन लोगों की रही जो अपनी नामवरी से दूर रह अपने सृजन कर्म में निरन्तर लगे रहे और बदले में किसी पद प्रतिष्ठा, यश एवं धनसम्पदा की चाहना नहीं की। लोकधारा के इन साधकों ने पर्याप्त मात्रा में गीतों-गाथाओं, कथा-किस्सों तथा अन्य विधाओं में लिखा और उसे जनगंगा के हवाले कर दिया। लोक की कसौटी पर जो साहित्य खरा उतरता रहा, वह कंठ दर कंठ चलता रहा और कुन्दन-सा निखार पाता रहा। ऐसा जनजयी साहित्य ही कालजयी हो पाता है। यह लोक का ही अजूबा है कि जिन्होंने बहुत लिखा, बहुत गाया मगर कहीं अपनी छाप नहीं छोड़ी सो वे अनाम जाने ही बने रहे जबकि ऐसा भी हुआ कि जिन्होंने न गाया, न लिखा मगर उनकी छाप चलती रहने से वे आज भी बहुजानी बने हुए हैं। इनमें गुरु शिष्य के रूप में रैदास मीरा का नाम लिया जा सकता है।
मीरा के सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि जब तक यह चित्तौड़ में रही, पूर्णत: राज परिवार के काण कायदे और मर्यादा
में रही किन्त पति भोजराज के निधन के बाद जब उसने चित्तौड़ लोक-लोक में मीरा की खोज
से बिदा ले ली तब शेष चालीस वर्षीय जीवन उसने अपनी पद
यात्राओं द्वारा विविध तीर्थों एवं धार्मिक स्थलों में ही बिताया। यह साहित्य का इतिहास लिखने वालों में लोक पक्ष को ठीक जीवन कोई कम अवधि का नहीं था, लगभग तीस वर्ष का रहा ही नहीं जांचा-परखा इसलिए लोक जीवन में समाज, साहित्य, और अधिकांश में लोक समाज, लोक जन और लोक में संस्कृति, कला, संगीत विषयक जो अलभ्य सामग्री छिपी पड़ी विचरण करने वाले पहुंचे हुए साधु-सन्यासी, सन्तों-सन्ताणियों रही वह अनदेखी ही रह गयी। इसका परिणाम यह रहा कि जो के सान्निध्य संगत और मेलजोल का रहा। कुछ लिखा गया वह अपूर्ण ही रहा। लोक पक्ष का यह समाज मीरा के सम्बन्ध में जो साहित्य अब तक प्रकाशित हुआ अपढ़ तथा परम्परानिष्ठ रहने के कारण अपने ही हाल में मस्त वह न तो उसके राज परिवार से जुड़े वैवाहिक जीवन की कोई रहा जबकि पढ़े-लिखे समाज में जो कुछ लिखा जाता रहा वही पख्ति जानकारी देता और न लोकनिधि के रूप में उसके लोकपढ़ा और समझा जाता रहा और उसी को पूर्ण माना जाता रहा। लोक में विचरण करने का अध्ययन ही प्रस्तुत करता है। गम्भीर यही कारण रहा कि लोक जीवन का समाज और पढ़े लिखे का।
चिन्तन का विषय है कि मीराबाई के जन्म से लेकर वैवाहिक समाज अलग-अलग समझे जाने लगा।
जीवन के सम्बन्ध में जो कुछ लिखा गया वह नहीं के बराबर पढ़े लिखे समाज ने लोक जीवन को हर दृष्टि से अपने से जनश्रुतियों के आधार पर लिखा गया। परिवार के अन्दर की अलग और पिछड़ा माना इसलिए पढ़ा लिखा समाज ही हर दृष्टि घटनाओं को लिपिबद्ध करने की तब कोई आवश्यकता रही और से और हर क्षेत्र में अगुवा बना रहा। वह यह भूल गया कि जो न ऐसी परम्परा ही देखने को बनती है इसलिए मीरा का यह पक्ष समाज उसकी तुलना में आधुनिक नहीं है वही मूल भारत की अजाना ही रहा और चित्तौड़ से जब मीरा निष्काषित हुई तब कोई आत्मा है। उसी का बाहुल्य है। उसी के पास परम्परानिष्ठ समृद्ध सुखद वातावरण उसके पक्ष में भी नहीं था इसलिए शेष काल संस्कृति है, वही भारतीय अन्तर चेतना है। परम्परागत ज्ञान के मीरा के लिए सर्वाधिक निराशाजनक ही रहा। सारे स्रोत और असल दस्तावेज पोथियों में नहीं नुकेरे जाकर
मीरा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष भक्ति के बहाने अध्यात्म उसके मस्तिष्क में और वाचिक परम्परा द्वारा कण्ठ दर कण्ठ में आकंठ निमग्न का रहा। विद्वानों ने मीरा के इस पक्ष को बहुत मुखरित बने हुए हैं।
गम्भीरता से रेखांकित नहीं किया और साधु सन्तों के साथ गाने, बैठने और नाचने के रूप में लिखकर उसे जो गरिमा प्रदान करनी .
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