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________________ समता दर्शन श्रमण भगवान महावीर का दिया गया जीवनोपयोगी सिद्धान्त है। भगवान महावीर ने समता को धर्म कहा है। धर्म व्यक्ति को तिराने वाला है। समाज व्यक्तियों से बनता है व्यक्ति के उत्थान से समाज का उत्थान है और व्यक्ति के पतन से समाज का पतन है। अत: समता दर्शन समाज को भी तिराने वाला है। समाज विकास में समता दर्शन की अहम् भूमिका हैसमता दर्शन द्वारा समाज में व्याप्त विषमताएँ समाप्त होंगी। समता दर्शन द्वारा सम्पूर्ण विश्व में शांति एवं सुख का साम्राज्य स्थापित हो सकता है। आवश्यकता है समता दर्शन को प्रत्येक व्यक्ति समझे, चिन्तन करे एवं जीवन में आचरण में लाए, मिठाइयों के नाम लेने से, चर्चा करने से रसास्वादन नहीं होता। रसास्वादन तो मिठाइयों के सम्यग् स्वरूप को समझकर यथा समय विवेक पूर्वक खाने से ही सम्भव है। समता दर्शन मात्र सिद्धान्त ही नहीं वरन् जीवन में आचरण करने योग्य है। समता दर्शन के सम्यक् स्वरूप को समझकर जीवन में उतारने पर व्यक्ति का जीवन उन्नत, सुखमय, आदर्श, हितकारी बन सकता है। यदि व्यक्ति का विकास होगा तो समाज का विकास स्वत: निश्चित है। समाज का मूल्यांकन उसके सदस्यों के आधार पर किया जाता है। व्यक्ति समाज के लिए एवं समाज व्यक्ति के लिएजब से व्यक्ति ने अकेलापन छोड़कर समूह में अन्य साथियों के साथ रहना स्वीकार किया है, तबसे सामाजिक व्यवस्था का विकास हुआ है, तब से पारस्परिक सहयोग की भावना विकसित हुई है, सामाजिक व्यवस्था का शुभारम्भ हुआ है, सहकार एवं सहयोग की भावना जागृत हुई है, अत: व्यक्ति एवं समाज अन्योन्याश्रित हो गये हैं। समता दर्शन प्रत्येक मानव के जीवन का अंग बने तो व्यक्तिगत पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में समता के संचार से सर्वत्र आनन्द ही आनन्द होगा। वसुधैव कुटुम्बकम् की कल्पना मूर्त रूप ग्रहण कर सकेगी। समता समृद्धि, शान्ति एवं श्रेष्ठता की प्रतीक है। आचार्य श्री नानेश के शब्दों में "अन्त में यह विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि जो समता की साधना करेगा उसका स्वयं का जीवन तो धन्य होगा ही किन्तु वह समाज के जीवन को भी धन्य बनायेगा।" अत: यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि समाज विकास में समता दर्शन की अहम भूमिका है। मैं यहाँ 'समता' दर्शन और व्यवहार' पुस्तक के कुछ अंश/उद्धरण प्रस्तुत करना उचित समझता हूँ। यथा १. विश्व दर्शन तभी सार्थक है जब योग द्रष्टा अपनी समर्थ दृष्टि के माध्यम से सम्पूर्ण दृश्य को समतामय बना सके। यथावत् स्वरूप दर्शन से ही समता का स्वरूप प्रतिभासित हो सकेगा। पृष्ठ संख्या ३७ २. मनुष्य के मन के मूल में रही समता ज्यों-ज्यों उभरती जायेगी, वह अपने व्यापक प्रभाव के साथ मानव जीवन को भी उभारती जायेगी। उसे अशांति, दुःख, दैन्य एवं निकृष्टता के चक्रवात से बाहर निकाल कर यही समता उसे शांति, सर्वांगीण समृद्धि एवं श्रेष्ठता के सांचे में ढालेगी। पृष्ठ संख्या २८ ३. भारतीय संस्कृति में “वसुधैव कुटुम्बकम" की जो कल्पना की गई है, उसे समता पथ पर चलकर ही साकार बनाई जा सकती है। सारे विश्व को बड़ा कुटुम्ब मान लें, उसे अपनी स्नेह पूर्ण आत्मीयता से रंग दें, तो भला क्यों नहीं ऐसी श्रेष्ठ कल्पना साकार हो सकेगी? पृष्ठ संख्या ८९ ४. समता के प्रवेश को सम्यक्त्व का श्री गणेश कह सकते हैं। अत: सबसे पहले समदृष्टिपना आवे, यह वांछनीय है, क्योंकि समदृष्टि जो बन जायेगा तो वह स्वयं तो समता पथ पर आरूढ़ होगा ही किन्तु अपने सम्यक् संसर्ग से वह दूसरों को भी विषमता के चक्रव्यूह से बाहर निकालेगा। इस प्रयास का प्रभाव जितना व्यापक होगा उतना ही व्यक्ति एवं समाज का सभी क्षेत्रों में चलने वाला व्यवस्था क्रम सही दिशा की ओर परिवर्तित होने लगेगा। पृष्ठ संख्या ४२ ५. योग दृष्टा की समर्थ दृष्टि विश्व के विशाल रंगमंच पर जहां भी पड़ेगी, वह समतत्वों की शोध करेगी तथा विषम तत्वों को भी समता के साथ सम बनाने में निरत हो जायेगी। द्रष्टा वही योग्य जो समता को अपनी दृष्टि में समा ले तथा दृष्टि वही समर्थ जो विषम को भी सम बनादे। यह समता मूलक धरातल ही सफल विश्व दर्शन की ओर अग्रसर बनता है। ऐसा प्रगतिशील दृष्टा 'समदर्शी' बन जाता है। पृष्ठ संख्या ३० ६. मूल आवश्यकताएं होती हैं- भोजन, वस्त्र और निवास। यही कारण है कि समस्त जीवनोपायेगी पदार्थों के यथा विकास, यथायोग्य वितरण पर बल दिया जा रहा है। यथा विकास एवं यथा योग्य वितरण का लक्ष्य यह होगा कि जिसको अपनी शरीर-दशा, धंधे या अन्य परिस्थितियों के अनुसार जो योग्य रीति से चाहिये, वैसा उसे दिया जाय। यही अपने तात्पर्य में समवितरण होगा। पृष्ठ संख्या६३ ० अष्टदशी / 850 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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