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यही नहीं प्रभु महावीर का उद्घोष है कि आत्मा ही परमात्मा है- 'अप्पा सो परम अप्पा' इस उच्च पद को प्राप्त करने के लिए प्रभु महावीर ने सबसे पहले सम्यग् दृष्टि या सम दृष्टि बनने का उपदेश दिया, मिथ्यादृष्टि को दूर कर सम्यग् दृष्टि बनने का विषम दृष्टि से मुक्त हो सम दृष्टि बनने का उपदेश दिया है। "विषमता मिथ्या होती है और समता सम्यक् "समता के प्रवेश को सम्यक्त्व का श्री गणेश कह सकते हैं। जहाँ सम्यक्त्व का श्री गणेश है, वहाँ समदृष्टि का विकास सम्भव है। भगवान महावीर ने समता दर्शन का व्यवस्थित सिद्धान्त विचार एवं आचार दोनों रूप में संसार के समक्ष प्रस्तुत किया। प्रभु महावीर के अनुसार संसार के समस्त प्राणी समान हैं, सभी जीव जीना चाहते हैं अतः किसी भी जीव की हिंसा नहीं की जावे जीओ और जीने दो का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है।
विचार एवं आचार में समता - आध्यात्मिक क्षेत्रों में भगवान महावीर ने विचार रूप में 'जीओ और जीने दो' सभी जीव समान हैं का सिद्धान्त दिया तो आचार रूप में सप्त कुव्यसन का त्याग, श्रावक के बारह व्रत, साधु के पांच महाव्रत, समिति गुप्ति के पालन का विधान प्रस्तुत किया जिससे विचारों की समता प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता एवं शक्ति के अनुसार जीवन में उतार सके। सप्त कुव्यसन हैं- (१) मांस भक्षण (२) मदिरा पान (३) जुआ (४) चोरी (५) शिकार ( ६ ) परस्त्रीगमन (७) वेश्यागमन । प्रत्येक मानव को इन कुव्यसनों
मुक्त रहने का उपदेश दिया श्रावक के व्रत है (१) स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रत (२) स्थूल मृषावाद विरमण व्रत (३) स्थूल अदत्तादान विरमण व्रत (४) स्वदार संतोष, परदार विवर्जन मैथुन विरमण व्रत (५) परिग्रह परिमाण व्रत (६) दिशा परिमाण व्रत (७) उपभोग परिभोग परिमाण व्रत (८) अनर्था दण्ड त्याग व्रत (९) सामायिक व्रत (१०) देशावगासिक व्रत (११) पड़िपुन्न पौषध व्रत (१२) अतिथि संविभाग व्रत पाँच महाव्रत है (१) अहिंसा (२) सत्य (३) अस्तेय (४) ब्रह्मचर्य (५) अपरिग्रह । व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार श्रावक के व्रतों का या साधु के महाव्रतों का पालन करें।
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सामाजिक क्षेत्र में समता दर्शन- सामाजिक स्तर पर समाज के सभी सदस्य समान हैं। वर्ण, जाति प्रदेश आदि के भेद से व्यक्ति-व्यक्ति के मध्य भेद की दीवार खड़ी करना सर्वथा अनुचित है। सामाजिक स्तर पर सभी समान हैं, विकास के अवसर सभी के लिए समान हों, यह समता दर्शन है, प्राचीन काल में सामाजिक स्तर पर विषमताएँ थीं, पर समय के परिवर्तन के साथ विषमताओं के बंधन ढीले हो गये सामाजिक समानता के क्षेत्र में वर्तमान में काफी विकास हुआ है।
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राजनैतिक क्षेत्र में समता दर्शन- इस जगती तल पर लोकतन्त्र का प्रादुर्भाव आगमन राजनैतिक क्षेत्र में समानता के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। प्राचीन काल की साम्राज्यवादी लिप्सा, सामन्तवादी राजतन्त्र विस्तारवादी राजनीति के बन्धनों को प्रजातन्त्र ने शिथिल किये। जनता का जनता के लिए जनता द्वारा शासन प्रजातन्त्र या लोकतन्त्र है। लोक तन्त्र द्वारा राजनैतिक समानता की स्थापना हुई। यह एक सफल प्रयास है, फिर भी इसे पूर्ण रूप से राजनैतिक समानता नहीं कह सकते हैं, अभी इसमें सुधार की आवश्यकता है। राजनैतिक क्षेत्र में सभी को समानता प्राप्त हो, यह समता दर्शन है।
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आर्थिक समानता आर्थिक क्षेत्र में सभी व्यक्तियों को या योग्य समानता के अवसर प्राप्त हों, यह आर्थिक समता दर्शन है। समय के परिवर्तन के साथ आर्थिक क्षेत्र में भी इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रयास किये गये कार्ल मार्क्स ने साम्यवाद के रूप में विश्व में नया दर्शन प्रस्तुत किया। इस क्षेत्र में बहुत कुछ सफलता भी मिली। परन्तु फिर भी विश्व में आर्थिक असमानता मुँह फाड़े खड़ी है। समता दर्शन के अनुसार आर्थिक समानता का अर्थ यह नहीं है कि संसार के सभी व्यक्तियों के पास समान सम्पत्ति हो, सम्पत्ति का वितरण समान हो, चाहे वह परिश्रमी हो या निठल्ला हो, योग्य हो या अयोग्य हो, पुरुषार्थी हो या पुरुषार्थहीन हो। इस प्रकार की समानता तो मान्य एवं योग्य नहीं है। सभी व्यक्तियों को अर्थोपार्जन के समान अवसर प्राप्त हों, योग्यता के अनुसार पारिश्रमिक दिया जावे, आर्थिक असमानता की गहरी खाइयों को पाटा जावे, व्यक्ति की क्षमता के अनुसार कार्य लिया जावे, अत्यधिक आर्थिक विषमता को दूर किया जावे । प्रत्येक व्यक्ति को आवश्क वस्तुओं की आपूर्ति हो । सभी को शिक्षा एवं विकास के समान अवसर उपलबध हों। आर्थिक समानता के क्षेत्र में वर्तमान युग में बहुत प्रगति हुई है, फिर भी विश्व में विषमता विद्यमान है। एक ओर जहाँ कुछ देश एवं कुछ व्यक्तियों के पास धन का अम्बार है तो दूसरी ओर ऐसे व्यक्ति भी है जो महान अर्थ संकट में है, दो समय का भोजन भी उन्हें उपलब्ध नहीं होता है। इस विषमता को दूर करना आवश्यक है जिसके लिए समता दर्शन आवश्यक है।
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समाज क्या है? सीधी सादी भाषा में व्यक्तियों के समूह को समाज कहते हैं। समाज शास्त्रियों ने समाज की अनेक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। पाठकों को परिभाषाओं के जाल में न डालकर मैं सीधा इस विषय पर उपस्थित हो रहा हूँ कि समता दर्शन सामाजिक विकास में किस प्रकार सहयोगी हो सकता है। समता दर्शन के बारे में ऊपर मैंने बहुत संक्षेप में कुछ लिखने का प्रयास किया है। विस्तृत जानकारी के इच्छुक पाठकगण आचार्य श्री नानेश की पुस्तक 'समता दर्शन एवं व्यवहार' पढ़ने का कष्ट करें।
छ अष्टदशी / 84
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