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________________ हाता था। थी वह नहीं की गयी। इस काल में मीरा का पीहर परिवार भी मीरा लोक जीवन में मीरा के नाम से अगणित पद भजन कीर्तन के प्रति अधिक सहानुभूति पूर्ण नहीं रहा, कारण कि जब वह अपने प्रचलित हैं। मीरा के नाम से ब्यावलें, ढालें, धमाले, ख्यातें, बातें ससुराल में ही ठीक ढंग से नहीं स्वीकारी गई तो पीहर वाले इस परचियां और फलियां भी कई मिलती हैं। राजस्थान के अलावा मीरा को अपने कुल के अनुकूल मिजाज वाली नहीं मानने लगे। काठियावाड, गुजरात, सिन्ध, हरियाणा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र जाहिर है कि मीरा जब दोनों ही राजकुल की प्रिय भाजन नहीं रही तमिलनाडु, तेलगु, पंजाब, ब्रज, उत्तरप्रदेश आदि कई प्रान्तों में तब लोक में भी राजपरिवार के विरुद्ध आगे आकर उसके प्रति मीरा के नाम का डंका गाया, बजाया और नाचा जा रहा है। सहानुभूति का दिखावा नहीं रहा। यों भी मीरा का अधिकांश समय भजन गाने वाले अनेक ऐसे हैं जिनसे यह पता लगता है कि मीरा तो नितान्त कृष्ण भक्ति में खोये रहने में व्यतीत होता था। के नाम से जो भजन वे गा रहे हैं वे उन्होंने कब किससे, कहां उसे बाह्य अगजग की अधिक परवाह नहीं रही। कष्ण सीखे? उनमें से प्रमुख गायक यह कहते हुए मिलते हैं कि भजन भक्ति में पूर्ण रूप से समर्पित मीरा बेसुध रह कर सुधहीन ही गायकी में जब वे पूरे डूब जाते हैं तब उन्हें अपनेपन का भान एकान्त साधना करती रही। नहीं रहता और वे मीराजी के नाम से रात-रात भर गाते रहते। साहित्यकारों ने मीरा को सर्वाधिक लोकप्रियता उसके पदों पहले से कोई पद उन्हें याद नहीं होता। उनके पास लिखा हुआ कोई कागज-पानड़ा भी नहीं होता तब अपने आप लाइनें की के कारण दी। स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाई जाने के कारण मीरा पद-रचना के रूप में ही सर्वाधिक चर्चित हुई। यह गहन लाइने उनके मन में आती रहती हैं और वे उसी-उसी धुन में गाते खोज का विषय है कि विभिन्न पाठ्यक्रमों में मीरा के नाम के हुए मगन मस्त रहते है। गोकुल, वृन्दावन, मथुरा, द्वारिका आदि में जहां मीरा एक से अधिक बार गई, वहां कई मीराधारी जो पद पढ़ाये जाते रहे क्या वे मीरा द्वारा रचे गये हैं? तब फिर महिलायें ऐसी मिलेंगी जो निरन्तर नित नये-नये पद गाती हुई लोक समाज में मीरा के नाम के जो पद, भजन आदि गाये जा सुनी जा सकती हैं। जनजातियों में भी मीरा के नाम को कई रूपों रहे हैं क्या वे मीरा के द्वारा रचित हैं? इधर विद्वान लोग ही मीरा में गाया जाता है वहां कौन मीरा के नाम से गवा रहा है अथवा के प्रामाणिक पदों के संकलन की बार-बार आवश्यकता महसूस वे कहां से शिक्षा-दीक्षा लेकर मीरा को गा रहे हैं। कर रहे हैं। ऐसे करते-करते कितने ही संकलन मीरा के पदों के प्रकाशित हो गये हैं, किन्तु तब भी कोई एक मत से यह कहने अब जब लोक बोलियों का अधिक बोलबाला है और हर के लिए तैयार नहीं है कि कौनसे पद मीरा द्वारा लिखे गये हैं अंचल की बोली भाषा के रूप में अपना अस्तित्व देने को आतुर और कौन से क्षेपक हैं। है तब मीरा के नाम से गाये जाने वाले साहित्य के सांगोपांग __ अध्ययन की सिलसिलेवार आवश्यकता महसूस की जाने लगी रैदास मीरा के वाट-गुरु अर्थात् राह-गुरु थे। चित्तौड़ से है। मीरा के नाम से काव्य-रूप की जो विधाएं है उनके सम्बन्ध मीरा इनके साथ निकली और अन्त तक रैदास उसके साथ रहे, में भी नया प्रकाश पड़ेगा और छन्द अंलकार का जो अध्ययन ऐसा कहा जाता है। हमारे यहां अनाम अथवा दूसरों के नाम और अब तक हो चुका है उससे अधिक जानकारी और काव्य-रूपों छाप से साहित्य सृजन की बड़ी जबर्दस्त परम्परा रही है। ऐसे के लक्षणों के बारे में जानकर भी साहित्य में अधिक अवदान कई लोग मिलते हैं जिन्होंने या तो बेनाम से लिखा या फिर उनके दिया जा सकेगा। परिचय और संगत में जितने भी लोग आये उनके नाम छाप से लिखा। चित्तौड़ जिले के छीपों के आकोला गाँव के मोहनजी ने अनाम भाव से लगभग पचास हजार पदों की रचना की। ये पद उनके सम्पर्क में जो भी गायक, वादक और भजनीक आये उन्हें उनके नाम से लिख-लिख देते रहे। ऐसे करते-करते उन्होंने प्रेमदास, देवीलाल, जोरावरमल, गंगाराम, कालूराम, रामलाल, राघवलाल, टेकचन्द, शंकरलाल, लक्ष्मीलाल आदि कइयों की छाप से पद लिखे। चन्द्रसखी के नाम से भी कई पद मिलते हैं। उदयपुर में ही दशोरा परिवार में एक सज्जन ऐसे हुए जिन्होंने चन्द्रसखीमय बनकर चन्द्रसखी छाप के सौ पद लिखे। ० अष्टदशी / 870 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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