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________________ बच्छराज अभाणी इस संस्था को कभी अर्थ का अभाव नहीं हुआ है। जैनपूर्व अध्यक्ष- श्री श्वे० स्था० जैन सभा, कोलकाता अजैन सभी इसकी लोक कल्यणकारी गतिविधियों एवं क्रिया कलापों से प्रभावित आगे बढ़कर सहयोग प्रदान करते हैं अत: इसकी विभिन्न समितियों में जैनेतर समाज के रूप में भी सम्मिलित होकर कंधे से कंधा मिलाकार चलते हैं। जहां सर्वश्री हरखचंदजी कांकरिया, सरदारमलजी कांकरिया, रिखबदासजी भंसाली, सुन्दरलालजी दुगड़, सोहनराजजी सिंघवी, रिधकरणजी बोथरा, बच्छराजजी अभाणी जैसे सेवा भावी कार्यकर्ता पदाधिकारी एवं ट्रस्टी हों वहां कभी किसी चीज की कमी नहीं रह सकती। सर्वश्री विनोद मिन्नी, अशोक मिन्नी, सुभाष बच्छावत, फागमल अभाणी, चन्द्रप्रकाश डागा, किशोर कोठारी युवा कार्यकर्ता जहां प्राणपण से कार्य करते हों, वह संस्था दिन दुनी, रात चौगुनी तरक्की करते हुए अपने सेवा प्रकल्पों को आगे बढ़ाने में सदैव सक्षम है और भविष्य में भी रहेगी बुक बैंक हो, नि:शुल्क शिविर हो, शिक्षा के विभिन्न आयाम हों सभी कार्यक्रम इन्हीं युवा कार्यकर्ताओं के कंधों का सहारा लेकर नित नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। ग्रामीणों अंचलों में सिलाई प्रशिक्षण केन्द्र, कम्प्यूटर केन्द्रों एवं बुक बैंक की स्थापना इस सभा को एक नया स्वरूप प्रदान कर जन-जन में लोक प्रियता के कीर्तिमान स्थापित कर रही है। आठ दशक की यह यात्रा अत्यन्त गौरवपूर्ण रही है एवं शताब्दी की यात्रा सन् १९२८ ई. में संस्थापित श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी । अनेक नये कीर्तिमान स्थापित करने में सफल होगी, इसी आशा जैन सभा कोलकाता में एक साम्प्रदायिक संस्था के छोटे से रूप और विश्वास के साथ। में स्थापित हुई थी किन्तु जैन धर्म के रत्नत्रयी सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की अभिवृद्धि के उद्देश्य से स्थापित हुई थी एवं शिक्षा, सेवा एवं साधना की अनवरत प्रवाहिणी त्रिवेणी त्रिपथगा के महान उद्देश्यों को लेकर चलने के कारण शीघ्र ही कलकत्ता महानगर एवं ग्रामीण अंचलों तक इसकी सुवास व्याप्त हो गई। मानव सेवा, लोक कल्याण एवं परोपकार सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामय की घुट्टी जिसने जन्मते ही पान की हो वह भला कट्टर कैसे हो सकती है। इसके सभी पदाधिकारी एवं कार्यकर्ता समाज सेवा के प्रति पूर्ण समर्पित हैं। एक दूसरे से अगाध विश्वास, प्रेम एवं सद्भावना से आपस से मिल जुलकर कार्य करते हैं। मत भेद हो सकता है पर मन भेद कभी नहीं रहता। संस्था के सारे कार्य अत्यन्त पारदर्शी हैं एवं स्फटिक की तरह निर्मल एवं साफ सुथरी छवि लिए हुए हैं। सभी आपसी सूझबूझ और एक जूट होकर कार्य करते हैं अत: यह विशाल वटवृक्ष की तरह छाया, विश्रान्ति एवं अमृतोपम फल प्रदान कर रही है। 0 अप्टदशी / 600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012049
Book TitleAshtdashi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhupraj Jain
PublisherShwetambar Sthanakwasi Jain Sabha Kolkatta
Publication Year2008
Total Pages342
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size22 MB
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