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________________ - डॉ० नरेन्द्र भानावत एम. ए. पी-एच. डी [विश्रुत लेखक एवं विचारक : प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर 000000000000 ०००००००००००० अभिनन्दन : एक ज्योतिवाही साधक का प्रणय ...DO PARSA ATION AHITION प्रवर्तक पूज्य श्री अम्बालाल जी महाराज साहब श्रमण संस्कृति के आदर्श सन्त, तत्त्वद्रष्टा और प्रभावी व्याख्याता हैं। राजस्थान का मेवाड़ प्रदेश त्याग, बलिदान, साहित्य, संगीत और कला का प्रमुख केन्द्र रहा है । शक्ति और भक्ति का अद्भुत समन्वय स्थल है यह मेवाड़ प्रदेश । यहाँ अनेकानेक सन्तों, शूरवीरों, देश-भक्तों और सती-साध्वियों ने जन्म लेकर अपने साधनारत, तपोनिष्ठ, उदात्त जीवन से यहाँ के कण-कण को आलोकित और गौरवान्वित किया है। इसी गौरवमयी परम्परा के जाज्वल्यमान रत्न हैं-पूज्य श्री अम्बा गुरु । आप सरलता, त्याग, सेवा और साधना के मूर्तरूप हैं। भौतिक चकाचौंध और प्रभुता-प्रदर्शन से दूर रहकर एक शांत स्वभावी, आध्यात्मिक साधक के रूप में आप आत्म-कल्याण के साथ-साथ लोक-कल्याण में गत ५० वर्षों से सेवारत हैं। आपने धर्म को जागरूक चेतना और प्रगतिशीलता का लक्षण माना है। जब-जब धर्म का यह प्रगतिशील तत्त्व मन्द पड़ जाता है तब-तब समाज की गति रुक जाती है । उसकी तेजस्विता धूमिल पड़ जाती है। धर्म के तेजस्वी रूप को सतत बनाये रखने की दृष्टि से ही आपने 'धर्म ज्योति परिषद' जैसे संस्थान को स्थापित करने की प्रेरणा दी। कहना न होगा कि आपके प्रभावकारी उपदेशों से प्रेरित होकर परिषद धर्म के ज्योति स्वरूप को जीवन के विविध पक्षों में परावर्तित करने का पुण्य कार्य लगातार कई वर्षों से कर रही हैं। सम्भवतः सन् १९७० के दशहरा-अवकाश में मुझे डूंगला-चातुर्मास में आपके दर्शन करने का सौभाग्य मिला। उस समय मेरे साथ छोटी सादड़ी के पं० शोमाचन्द्र जी वया व श्रीमती शांता भानावत भी साथ थीं। हमें आपका प्रवचन सुनने का अवसर मिला। आपके प्रवचनों में तत्त्व मीमांसा के साथ-साथ समाज को अंध-विश्वासों और कुरीतियों से मुक्त करने की मार्मिक अपील रहा करती है । परस्पर बातचीत में आपने इस बात पर बल दिया कि वर्तमान पाश्यक्रम में धार्मिक शिक्षा अर्थात् सदाचार की शिक्षा का समावेश किया जाना जरूरी है। उस थोड़े से सान्निध्य में मैंने देखा कि आप सरसमना, आत्मानुशासी, संयमनिष्ठ सन्त हैं। आप पारस्परिक मूल्यों को नयी दृष्टि देकर, उन्हें गतिशील बनाने के पक्षधर हैं । आपका मानना है कि युवा पीढ़ी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अग्रसर, नये बोध से परिचित हो, यह अच्छी बात है; पर भारतीय उदात्त परम्पराओं की जीवंत संस्कृति से वह कटकर अलग-थलग हो जाये, यह अपने देश के लिये ही नहीं सम्पूर्ण मानवता के लिये हानिकारक है अत: समाज को चाहिए कि युवकों को अपनी महान संस्कृति और उसकी परम्पराओं का ज्ञान कराने के लिये स्थान-स्थान पर शिक्षण संस्थाओं, पुस्तकालयों आदि की व्यवस्था करायें। इसी अवसर पर मुझे आपके प्रबुद्ध शिष्य श्री सौभाग्य मुनिजी 'कुमुद' के दर्शनों का भी सौभाग्य मिला, जो सहज कवि और मधुर व्याख्याता होने के साथ-साथ उदार चिन्तक और विचारक भी हैं। यह बड़े हर्ष और गौरव का विषय है कि ऐसे महान् सन्त के दीक्षाकाल के ५० वर्ष के समापन और ५१वें वर्ष के प्रवेश पर समाज में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन कर, एक अभिनन्दन-ग्रन्थ समर्पित करने का निश्चय किया है । यह अभिनन्दन वस्तुतः उस धर्म ज्योति वाहक का अभिनन्दन है जिसके प्रकाश और तेज की विश्व को आज सबसे बड़ी आवश्यकता है । यह ज्योतिवाही साधक शतायु हों और अपनी सहस्र अमृत किरणों से जन-जन का पथ आलोकित करता रहे :-इसी भावना के साथ सादर वंदनाजंलि ।
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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