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0 मदनलाल जैन [B. A., LL. B., 'साहित्यरत्न' R. J. S.]
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रचनात्मक प्रवृत्तियों के धनी :
पूज्य प्रवर्तक गुरुदेव श्री
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सरलता, मृदुता एवं सौम्यता के धनी पूज्य प्रवर्तक गुरुदेव श्री का जीवन निर्मल गंगा का प्रवाह-सा है जिसके किनारे शान्त लहलहाते उपवन से प्रतीत होते हैं। वैसे सन्तों का जीवन सरित प्रवाह-सा होता है परन्तु यदि पूज्य प्रवर्तक गुरुदेव श्री के लिये मेवाड़ का गौरव भी कह दिया जावे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनका शांत, निश्छल एवं पवित्र जीवन भगवान महावीर की उस श्रमण परम्परा की याद दिलाता है जिसके माध्यम से विश्व में भारत ने जगद्गुरु का पद प्राप्त किया ! सत्य-अहिंसा का मूल मन्त्र फंकने वाली यह श्रमण परम्परा सदा सर्वदा जनता का उपकार करती आई है। मेवाड़ भूषण पूज्य श्री की परम्परा का भार निभाने वाले पूज्य गुरुदेव श्री शास्त्रों के प्रकाण्ड पण्डित एवं ज्योतिष विद्या-विशारद हैं। उनका जीवन सदा सर्वदा मेवाड़ की भोली जनता का मार्ग प्रशस्त करने में बीता है और उनके हृदय में समाज में व्याप्त कुरुढ़ियों के प्रति तड़फ है।
मेवाड़-क्षेत्र राजस्थान का काफी पिछड़ा हिस्सा है। इसका गौरव अरावली की कन्दराओं व बीहड़ वनों में छिपा पड़ा है; जहाँ पर स्वतन्त्रता के उपासक एवं रक्षक महाराणा प्रताप ने अपनी वीरता का परिचय दिया था। घास की रोटियाँ खाकर भी जिसने आधीनता स्वीकार नहीं की व अन्तिम क्षणों तक प्रिय 'चेतक' की चेतना से झूझता रहा । इसी क्षेत्र में भामाशाह जैसे लोहपुरुष ने २५००० सैनिकों के २५ वर्षों के जीवन निर्वाह की राशि को महाराणा के चरणों में रख दी एवं पन्ना धाय ने अपने कर्तव्य का पालन अपने ही लाल का बलिदान करके किया ! यह वही क्षेत्र हैं जहाँ पर साधनों की कमी से मानव मजदूरी के लिये भटकता है। शिक्षा के अभाव अमियोग से पूरित हमारा यह मेवाड़ कुरुढ़ियों से ग्रस्त है । हमारे समाज में रचनात्मक प्रवृत्तियों की भी कमी रही है । मेवाड़ के अंचल में तो ऐसी कोई भी संस्था नहीं थी जो समाज को नई दिशा दे सके। यहाँ पर ऐसा संगठित प्रयास कभी नहीं हुआ कि जिससे सामयिक प्रकाशन के साथ धार्मिक स्कूलों का संचालन हो सके एवं गरीब विधवाओं एवं छात्रों को भी मदद देकर उन्हें आगे बढ़ाया जा सके । यहाँ पर ऐसे काफी युवक एवं विचारक हैं जो रचनात्मक कार्य करना चाहते हैं परन्तु बिना मार्गदर्शन उन्हें गति नहीं मिली और इसी कारण समाज में अनेक ऐसे होनहार छात्र अर्थाभाव के विकास से महरूम रहे एवं विधवाएँ रो-रो कर अपना जीवन पूरा करने में लगी रहीं और हमारा समाज मृत्युभोज, विवाह, दहेज एवं होड़ के हथौडों की मार खाकर भी जीता रहा।
कहा जाता है कि जब प्रकाश की प्रथम किरण भी फूटती है तभी अंधकार विलीन होता है और यही बात पूज्य प्रवर्तक गुरुदेव श्री अम्बालालजी महाराज साहब का भीलवाड़ा चातुर्मास सिद्ध कर बैठा ! उनके योग्य शिष्य व्याख्यान विशारद मुनि श्री सौभाग्य जी से मेरी वार्ताएँ चलीं। पूज्य गुरुदेव श्री से भी विचार हुआ और प्रकाश के मानिन्द सन् १६६७ में मेवाड़ के अंचल में दैदिप्यमान संस्था “धर्म ज्योति परिषद" का सूर्य जगमगा उठा । कौन जानता था कि
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