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गुरुदेव के गुरुभ्राता, शिष्य परिवार : एक परिचय | ३५ पं० रत्न श्री हस्तिमल जी महाराज, ज्ञानानुरागी एवं स्वाध्यायशील रहे अतः शास्त्रीय ज्ञान भी अच्छा
अर्जित किया ।
गुरुसेवा का लक्ष्य प्रारम्भ से ही श्रेष्ठ था वह अन्त तक किया ।
परमश्रद्धेय श्री मांगीलाल जी महाराज की सेवा में रहते हुए भी तथा उनके स्वर्गवास के बाद भी इनका विचरण भारतवर्ष के सुदूर प्रान्तों में प्रायः होता रहा ।
भारत के दक्षिण प्रान्त को छोड़कर शेष भारत के अधिकांश हिस्सों में मुनि श्री का प्रभावशाली
विचरण होता रहा ।
इतने व्यापक विचरण के कारण अनेक सन्त महासती जी एवं अनेकों विचारकों, साहित्यकारों, राजनेताओं से मिलना होता रहा फलतः इनके पास अनुभवों का सुन्दर खजाना है ।
साहित्यकार
मुनि श्री बड़े साहित्यप्रिय हैं। इनकी प्रेरणास्वरूप कुवारिया पीपली में साहित्य के भण्डार उपस्थित हैं । ये स्वयं भी साहित्य सृजन किया करते हैं ।
आगम के अनमोल रत्न, दिव्य जीवन, तीन किरणें, रोड़ जी स्वामी का जीवन आदि कई पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं। और भी प्रकाशन के पथ पर आने की सम्भावना है। मुनि श्री निरन्तर जिन शासन के साहित्य भण्डार को मरे ऐसी हमारी कामना है ।
मुनि श्री के दो शिष्य हैं ।
श्री पुष्कर मुनि जी —ये रायपुर के क्षत्रिय वंशावतंश है। इन्हें कविता करने की गीत रचने की विशेष रुचि है। श्री कन्हैया मुनि, झाड़ोल प्रान्त के हैं ।
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साधु को वस्त्र के समान सहनशील बनना चाहिए । वस्त्र को साफ करने के लिए आग पर चढ़ाया जाता है। क्षार में घुलाया जाता है पीटा जाता है। धूप में सुखाया जाता है। गर्म इस्त्री से उसे सेका जाता है, फिर तह करके दबा दबा कर बंद करके रखा जाता है । इतना सब कुछ करने पर भी जब मनुष्य उसे शरीर पर धारण करता है तो वह उसकी शोभा ही
बढ़ाता है। यही
सहिष्णुता साधु को और हर महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति को सीखनी है ।
- 'अम्मागुर - सुवचन'
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