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श्री देवेन्द्र मुनि, शास्त्री, साहित्यरत्न
[जैन दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान, लेखक एवं अनुसंधाता ]
श्रमण संघ की महान विभूति : प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज [ व्यक्तित्व-दर्शन ]
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मंझलाकद, गेहूंआ वर्ण, विशाल भव्य - माल, अन्तर्मन तक पैठने वाली तेजस्वी नेत्र युगल, मुस्कराता सौम्य चेहरा, सीधा-सादा श्वेत परिधान और जन-जन के कल्याण के लिए निरन्तर प्रयत्नशील, गम्भीर व्यक्तित्व को लोग मुनि प्रवर प्रवर्तक अम्बालाल जी महाराज के नाम से जानते - पहचानते हैं। उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक और लुभावना है उससे भी कहीं अधिक गहरा और रहस्यमय है उनका अन्तर व्यक्तित्व जिसमें सागर के समान गम्भीरता है, सूर्य के समान तेज है, सुधाकर के समान शीतलता है, हिमालय के समान अचलता है, वसुन्धरा के समान सर्व सहनता है, ध्रुव के समान धैर्य है, बालक के समान सरलता है, युवक के समान उत्साह है, और वृद्ध के समान अनुभव सम्पदा
है । ऐसा विलक्षण और रंगीला व्यक्तित्व एक अबूझ पहेली नहीं तो फिर क्या है ?
मुझे आपके दर्शनों का सर्वप्रथम सौभाग्य सन् १९५० में नाई ग्राम में मिला था। उस समय आप अपने आराध्यदेव पूज्य मोतीलाल जी महाराज के साथ थे। उस युग में सम्प्रदायवाद का बोलबाला था, एक दूसरे से वार्ता - लाप करने में भी लोग कतराते थे और धर्म को खतरे में समझते थे । एक साथ में, एक मकान में ठहरना सम्भव नहीं था अतः पृथक्-पृथक् मकानों में हम ठहरे हुए थे। मैं पूज्य गुरुदेव महास्थविर श्री ताराचन्द जी महाराज व पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी महाराज के साथ था। जहाँ तक मुझे स्मरण है कि शौच के लिए जब बाहर जाते तब दोनों महारथियों में परस्पर वार्तालाप होता था । पर दर्शन होने पर भी मेरा उनसे व्यक्तिगत परिचय न हो सका। मैंने इतना ही सुना कि अम्बालाल जी महाराज थोकड़े व शास्त्रों के एक अच्छे जानकार सन्त हैं ।
सन् १९५७ में पूज्य गुरुदेव श्री पुष्कर मुनि जी महाराज जयपुर का शानदार वर्षावास पूर्णकर उदयपुर वर्षावास के लिए पधार रहे थे । उस समय आप श्री अपने गुरुदेव के साथ देलवाड़ा गाँव में स्थानापन्न थे । श्रमण संघ बन चुका था । पहले के समान अलगाव व दुराव नहीं रहा था। एक ही मकान में एक ही साथ ठहरे । इस समय आपको जरा गहराई से देखने का अवसर मिला । मुझे अनुभव हुआ कि आप केवल शास्त्रों के जानकार ही नहीं पक्के सेवानिष्ठ सन्त भी हैं । मंत्री मुनि श्री मोतीलाल जी महाराज का शरीर अत्यधिक स्थूल था, वे अपना आवश्यक कार्य भी अपने हाथों से उस समय नहीं कर सकते थे। आप बिना किसी भी संकोच के दिन रात उनकी सेवा में लगे रहते थे । मैंने सहज रूप से आपको कहा - यह कार्य लघु सन्त भी कर सकते हैं आप श्री को अन्य आवश्यक कार्य करना चाहिए। आपने कहा — देवेन्द्र ! प्रथम कार्य गुरुओं की सेवा का है । गुरुओं की सेवा से जी चुराना आत्म - वंचना है । हम बैठे-बैठे टुगर-मुगर देखते रहे, और अन्य छोटे सन्त सेवा करते रहे यह क्या हमारे लिए उचित है। हमें सेवा का उपदेश देकर नहीं अपितु सेवा का आचरण कर वह आदर्श उपस्थित करना चाहिए जिससे वे स्वयं भी उस कार्य में प्रवृत्त हों । अन्य उनके शिष्यों के रहते हुए भी मैंने उन्हें अपने गुरुदेव की शौचादि को परठते और उनसे खराब हुए वस्त्रों को
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