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५४२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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स्तवन : १५ रैवंतीबाई प्रभूजी ने पाक वेरायो। वीर सीयो अणगार पठायो॥२०॥ टेर।। सुर नर इन्दर सेवा करते हैं कंचन वृष्टि करायो। थोड़ा-सा पाकर हुई मेहवाणी जिन पद गोत बंधायो रे ॥१॥ चंदन बालाजी अष्टम पारणे वीर अभिग्रह फलायो। उड़दा रा बाकला सुपड़ा के खूणे प्रतिलाभी मान बढ़ायो ॥२॥ साड़ी बारा वरस लग तपस्या करने करम कठोर हठायो। साली दरखत हेठे केवल पाया इन्द्र मोच्छव को आयो ॥३॥ इन्द्रभूति प्रभु पासे पदारिया संजम सं चिति लाया। बड़ा रे चेला वीरजी रा वांदु तो गणधर पदवी पाया ॥४॥ बोहतर वरस नो आयुस पाली भव जीवा उपकार करायो । आनंद घन कहे धन श्री वर्धमान भाग बड़ो यश पायो ।।५।।
स्तवन : १६ चेतन रे तूं ध्यान आरत किम ध्यावे । तूं नाहक करम बँधावे-चे० ॥टेर।। जो जो रे भगवंत भाव देखिया सो सो ही वरतावे । घटे-बढ़े नहि किंचित मात्र काहे को मन डुलाबे ॥१॥ जलत काल जो चिंता अग्नी उपजे सो विणशावे । शोकातुर बीते दिन रेणी धर्म ध्यान घट जावे ॥२॥ सूख सं नींद न आवे रात में अन्न उदक नई भावे । पेरण ओढण मन · नई चावे रंग राग नई सुहावे ॥३॥ सुख नई रया तो दुख किम रहसी ऐ भी सायत गुजरावे । बांध्या सो भुक्त्या ही सरसी क्यूं आतम ने डंडावे ॥४॥ बिन भुगत्या छूटे नई असुभ उदे जो आवे । साहुकार सिरोमणि जो ही हंस हंस करज चुकावे ॥५॥ प्रभु समरण तपस्या करता दुष्कृत रज टल जावे । ज्येष्ठ कहे समता रस पीदां तुरन्त आनंद पावे ॥६॥
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