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३०४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन अन्य
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१ अनन्त ज्ञान , २ अनन्त दर्शन, ३ अव्याबाध सुख, ४ क्षायिक सम्यक्त्व, ५ अक्षय स्थिति, ६ अमूर्तपना, ७ अगुरुलघु,
८ अनन्त शक्ति । इकतीस गुण-(आठ कर्मों की मूल प्रकृतियों के क्षय की अपेक्षा से ये गुण कहे गए हैं।) १. ज्ञानावरण कर्म के क्षय से प्रगटे पांच गुण
(क) क्षीण आभिनिबोधिक ज्ञानावरण, (ख) क्षीण श्र तज्ञानावरण, (ग) क्षीण अवधिज्ञानावरण,
(घ) क्षीण मनःपर्यव ज्ञानावरण, (ङ) क्षीण केवलज्ञानावरण । २. वर्शनावरण कर्म के क्षय से प्रगटे नौ गुण
(क) क्षीण चक्षुदर्शनावरण, (ख) क्षीण अचक्षुदर्शनावरण, (ग) क्षीण अवधिदर्शनावरण, (घ) क्षीण केवलदर्शनावरण, (ङ) क्षीण निद्रा,
(च) क्षीण निद्रानिद्रा, (छ) क्षीण प्रचला,
(ज) क्षीण प्रचलाप्रचला, (झ) क्षीण स्त्यानद्धि, ३. वेदनीय कर्म के क्षय से प्रगटे दो गुण
(क) क्षीण सातावेदनीय, (ख) क्षीण असातावेदनीय । ४. मोहनीय कर्म के क्षय से प्रगटे दो गुण
(क) क्षीण दर्शनमोहनीय (ख) क्षीण चारित्रमोहनीय । ५ आयु कर्म के क्षय से प्रगटे चार गुण
(क) क्षीण नैरयिकायु, (ख) क्षीण तिर्यंचायु (ग) क्षीण मनुष्यायु, (घ) क्षीण देवायु । ६. नाम कर्म के क्षय से प्रगटे दो गुण
(क) क्षीण शुभ नाम, (ख) क्षीण अशुभ नाम । ७. गोत्र कर्म के क्षय से प्रगटे दो गुण
(क) क्षीण उच्चगोत्र, (ख) क्षीण नीचगोत्र । ८. अन्तराय कर्म के क्षय से प्रगटे पांच गुण(क) क्षीण दानान्तराय, (ख) क्षीण लाभान्तराय, (ग) क्षीण भोगान्तराय, (घ) क्षीण उपभोगान्तराय,
(ङ) क्षीण वीर्यान्तराय। अन्य प्रकार से इकतीस गुण
मुक्तात्मा के पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस, आठ स्पर्श, पांच संस्थान, तीन वेद, काय, संग और रूह-इन इकतीस के क्षय से इकतीस गुण प्रगट होते हैं।
मुक्तात्मा वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान और वेद रहित होते हैं। मुक्तात्मा के औदारिकादि काय (शरीर) न होने से "अकाय" हैं। बाह्याभ्यन्तर संग रहित होने से "असंग" हैं। मुक्त होने के बाद पुनः संसार में जन्म नहीं लेते, अतः "अरूह" हैं।
दग्धे बीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुरः ।
कर्मबोजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुरः॥ बीज के जल जाने पर जिस प्रकार अंकुर पैदा नहीं होता उसी प्रकार कर्म रूप बीज के क्षय हो जाने पर भव (जन्म) रूप अंकुर पैदा नहीं होता। मुक्तात्मा की अविग्रह गति
मुक्तात्मा स्थूल (औदारिक) शरीर और सूक्ष्म (तैजस-कार्मण) शरीर छोड़कर मुक्तिक्षेत्र में अविग्रह (सरल) गति से पहुंचता है। इस गति में केवल एक समय (काल का अविभाज्य अंश) लगता है । क्योंकि मनुष्य क्षेत्र में आत्मा जिस स्थान पर देहमुक्त होता है उस स्थान से सीधे ऊपर की ओर मुक्तिक्षेत्र में मुक्त आत्मा स्थित होती है। इसलिए मुक्तात्मा की ऊर्ध्वगति में कहीं विग्रह नहीं होता।
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