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________________ आधुनिक विज्ञान और जैन मान्यताएं | २८५ 000000000000 उत्तम जीवन =अहिंसा+अनेकान्त+अपरिग्रह-अ इस सूत्र का फलितार्थ यह है कि जीवन के तीन कार्यकारी अंग हैं-मन, वचन और काया। इन तीनों की एकरूप परिणति सार्थक जीवन प्रदान करती है। विचारों में अहिंसा, वचनों में परस्पर विरोधी समागम की वाणी और क्रियाओं में स्वावलम्बनमूलक समुचित रूप से नियन्त्रित प्रवृत्तियाँ, एक दूसरे की पूरक और संसाधक हैं। इन तीनों से जीवन में जो पूर्णता आती है, वह इनके योग के बराबर नहीं, अपितु गुणनफल के बराबर होती है, क्योंकि पूर्णता सामान्य योग से कई गुणी होती है। जैनधर्म का कर्मवाद मन, वचन, काय को प्रवृत्तियों पर ही आधारित है। इन प्रवृत्तियों से जो परिस्पन्द होते हैं, उनसे कर्म-परमाणुओं का आस्रव व बंध होता है । इंद्रिय, कषाय और अव्रतों से उत्पन्न होने वाली दर्शन स्पर्शनादि पच्चीस प्रकार की प्रवृत्तियाँ ही संसार के शुभाशुभ रूपों को प्रदर्शित करती हैं। अशुभ प्रवृत्तियों को कम करने या नियंत्रित करने के लिये अहिंसा आदि व्रतों एवं बाह्य एवं आभ्यन्तर तपों की प्रक्रिया अपनाई जाती हैं । वस्तुत ये प्रक्रियायें शरीर शुद्धि के माध्यम से भाव शुद्धि करती हैं और जीवन में उदारता एवं समता के भाव विकसित करती हैं। 'तत्त्वार्थसूत्र' के अन्तिम पांच अध्यायों में जीवन के नैतिक विकास के बाधक एवं साधक कारणों का सांगोपांग विवरण देखकर सहज ही पता चलता है कि जैनदर्शन में इस प्रक्रिया को कितने सूक्ष्मतम धरातल से विचार कर व्यक्त किया गया है। इस विवरण में भक्ति, ज्ञान एवं कर्म की त्रिवेणी के संगम में व्यक्ति स्नान करता है और जीवन को कृतकृत्य बनाता है। जीवन के नैतिक विकास में कर्मवाद व्यक्ति को स्वावलम्बी बनाता है और अनेकांतवाद उसे उदार और सर्वधर्म-समभावी बनाता है। अपरिग्रहवाद व्यक्ति को इस प्रकार के प्रवर्तनों के लिए प्रेरित करता है जो समाज के सुख, समृद्धि व विकास के हित में हों। अपनी आवश्यकताओं को समाज के स्तर के अनुरूप सीमित रखना ही सच्चा अपरिग्रहवाद है। इस प्रकार जैनधर्म की विचार-सरणि व्यक्ति के सर्वतोमुखी विकास को प्रतिबिम्बित करती है जिससे अभिनवतम सिद्धान्तों के दर्शन होते हैं। वस्तुतः विश्व संघ का आदर्श लक्ष्य इन्हीं तीन अकारों पर आधारित है। नये चिन्तन की आवश्यकता यह प्रश्न स्वाभाविक है कि ऐसे श्रेष्ठतर विचार-सरणि से अनुस्यूत धर्म के अंग के रूप में उन बातों का सामंजस्य कैसे होता है जो प्रयोगसिद्ध नहीं बन सकी हैं। इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि धर्म-ग्रन्थों में नैतिक विचार और प्रक्रियाओं के अतिरिक्त जिन अन्य बातों का विवरण है, उसका समावेश धर्म की प्रतिष्ठा एवं महत्त्व को बढ़ाने के लिए किया गया होगा । वैज्ञानिक युग में धार्मिक आस्था को दृढ़ बनाने एवं मानव को नैतिक मूल्यों के प्रति जागरूक बनाये रखने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि इस बात को स्पष्ट रूप से कहा जावे कि नैतिक प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य चर्चायें धर्म की अंग नहीं हैं । वे केवल तत्कालीन ज्ञान को प्रदर्शित करती हैं और प्रसंगवश ही धर्मग्रन्थों का अंग बन गई हैं । आज आधुनिक परिवेश में धर्मग्रन्थों के विवेचन की आवश्यकता है, जिनमें जीवन-विकास के सिद्धान्तों का निरूपण हो । ऐसा होने पर ही आज के व्यक्ति और समाज में धर्म के प्रति अभिरुचि उत्पन्न हो सकेगी। NUARY ....... नोट-लेख में चचित सभी प्रश्नों एवं विचारों से सम्पादक मण्डल का सहमत होना आवश्यक नहीं है । स्वतन्त्र चिन्तन के क्षेत्र में लेखक का आह्वान मननीय है। m SBLE 3wwwjalimelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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