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________________ * 000000000000 000000000000 wwwww Main Education International २८४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ का समुच्चय है जिनमें आवश्यक ऊर्जा उत्पन्न होती है। बहुत से वैज्ञानिक अपने द्वारा अन्वेषित इन तथ्यों पर स्वयं भी स्तब्ध हैं, क्योंकि उन्हें चैतन्य की मौतिकता पर विश्वास नहीं हो पा रहा है। यही नहीं, चैतन्य का अमूर्त अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए अमरीका ने एक करोड़ रुपयों के पुरस्कार की घोषणा भी अभी हाल में की है । चैतन्य भौतिक हो या अभौतिक, लेकिन वह जीवन का एक लक्षण माना जाता है । चैतन्य का विकास क्रमिक होता है और मानव सबसे उन्नत चेतन प्राणी है । चौदह कुलकरों का प्रकरण पढ़ने पर यह ज्ञात होता है कि संसार में जीवन क्रमश: विकसित हुआ है। परिस्थितियों के अनुरूप विभिन्न प्रकार के प्राणियों ने भूतल पर अवतार पाया है। विज्ञानियों का विकासवादी सिद्धान्त भी यही प्रदर्शित करता है । जैन ग्रन्थों में निरूपित प्राणों और पर्याप्तियों का स्वरूप भी विकासवाद से मेल खाता है । पंचेन्द्रिय जीवों को समनस्क और अमनस्क के रूप में दो प्रकार का बताया जाता है । वस्तुतः मन मस्तिष्क का कार्य है । यह देखा गया है कि प्रायः एकेन्द्रिय जीवों के मन नहीं होता, लेकिन अन्य जीवों में विभिन्न अवस्थाओं में मस्तिष्क पाया जाता है । फलतः विकलेन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय सभी जीव समनस्क होते हैं, केवल एकेन्द्रिय ही असंज्ञी और अमनस्क होते हैं । वस्तुतः वैज्ञानिक यह मानते हैं कि इंद्रिय और मन का विकास युगपत् ही होता है। जिन जीवों की इंद्रियाँ जितनी ही विकसित होंगी, उनका मन भी उतना ही विकसित होगा । जीवों की आयु के विषय में शास्त्रों में बहुत चर्चा की गई है। प्रत्येक जीव आयु पूर्ण होने पर मृत्यु को प्राप्त होता है । वस्तुतः यह जीव की मृत्यु नहीं, अपितु शरीर का नाश है। जैनदर्शन के अनुसार जीव तो अनादि अनन्त है । शरीर धारण के कारण उसमें पर्यायान्तर मात्र होते रहते हैं । वैज्ञानिक लोग अभी तक जीवन को सादि और सांत मानते रहे हैं । लेकिन आनुवंशिकता की समस्या ने उसको परेशान कर रखा था। नवीन अनुसंधानों से पता चला है कि जीवन तत्त्व की कुछ कोशिकायें प्रजनन प्रक्रिया में अगली पीढ़ी को बीज रूप में मिलती हैं । ये उत्तरोत्तर विकसित होकर उत्तरोत्तर पीढ़ियों में भी जाती हैं। क्या इन स्थानान्तरणीय कोशिकाओं को जैनमत में वर्णित सूक्ष्म - संस्कारी कर्म-परमाणु माना जा सकता है ? कर्म-परमाणु भी कोशिकाओं के समान पौद्गलिक होते हैं । शास्त्रों में इन्हें इन्द्रिय अग्राही होने से अदृश्य एवं अति सूक्ष्म कहा गया है लेकिन सूक्ष्मदर्शियों से इन्हें देखा जा सकता है या नहीं, यह विचारणीय है और कोशिकायें तो दृश्य हैं । यदि कर्म-परमाणुओं को तरंग कणिकता की सीमा में रखा जावे, तो उत्तेजनशीलता के कारण होने वाले परिस्पन्द जीव के साथ संयोग-वियोग का कारण बन सकते हैं। विज्ञान के अनुसार अतीन्द्रिय ज्ञान उक्त कोशिकाओं के फलस्वरूप ही सम्भव होता है । फलतः साधारण शरीर की तुलना में आनुवंशिक शरीर दीर्घकालिक होता है लेकिन यह दीर्घकाल अनंत नहीं है । जैनदर्शन का नीतिशास्त्र प्रायः सभी विद्वान यह मानते हैं कि धर्मों का प्रमुख लक्ष्य जीवन में नैतिक गुणों का विस्तार करना है । इन गुणों से ही व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है और उत्तम सुख प्राप्त होता है । धर्म को समग्र जीवन के समस्त अंगों की पद्धति मानने के कारण धर्मानुयायियों के जीवन में पर्याप्त दुरूहता आ गई है। जीवन के सभी अंगों में बीज रूप में धर्म सूत्र पिरोया रहे, यह बात सही है, पर जीवन गौण हो जावे और धर्म प्रमुख हो जावे, यह मानकर चलना संसारी जीवों के लिए बड़ी समस्या रही है । यह सही है कि जीवन के शुभोपयोग के लिए ही धर्म का महत्त्व है । भूगोल -खगोल आदि के ज्ञान का धर्म से प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं है । शुभोपयोग के लिए जहाँ एक ओर विचारों की उत्तमता एवं सार्वमौमिकता अपेक्षित है, वहीं दूसरी ओर तदनुरूप प्रवर्तन भी उससे अधिक महत्त्वपूर्ण है । या व्यक्ति ही है । जो अपने विकास से अन्य व्यक्तियों या समाज को विकसित करने में सहायक होता है । संपुष्ट विचार ही क्रिया को प्रेरित करते हैं । फलतः नैतिक जीवन की आधारशिला के रूप में बौद्धिक विचार- सरणि ही प्रमुख है । इस विचार सरणि के क्षेत्र में जैनदर्शन का अनूठा स्थान है, इसे विश्व के विभिन्न दार्शनिकों ने भी स्वीकृत किया है । यह अत्यंत युक्तियुक्त और मनोवैज्ञानिक है। इसमें पर्याप्त समीचीनता है। फलतः धर्म का प्रथम लक्ष्य जैनधर्म का सर्वोदयी भव्य प्रासाद अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के शक्तिशाली स्तम्भों पर खड़ा किया गया है, जो गणितीय रूप में निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है- सहय For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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