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। श्री दलसुख भाई मालवणिया [अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त जैन विद्या के मनीषी]
स्याद्वाद का अर्थ है--सत्य की खोज ! स्यावाद का फलित है—समन्वय ।
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स्याद्वाद का सही अर्थ
भारत में अनेक दर्शन हैं । वस्तु के दर्शन के जो विविध पक्ष हैं, उन्हीं को लेकर ये दर्शन उत्थित हुए हैं । जब इनका उत्थान होता है, तो किसी खास दृष्टि या आग्रह को लेकर होता है । यदि यह दृष्टि या आग्रह कदाग्रह का रूप ले ले तब ही इन्हें मिथ्या कहा जा सकता है, अन्यथा नहीं। अन्य दृष्टि को मिथ्या कहने का प्रघात प्राय: सभी दर्शनों में देखा जाता है । जैनों ने भी, अनेकांतवादी दर्शन होते हुए भी "तमेव सच्चं जं जिणेहिं पवेइयं" यह उद्घोष किया। तब उसमें भी अन्य दर्शनों को मिथ्या बताने की सूचना छिपी हुई है, ऐसा लगेगा । किन्तु वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो इस उद्घोष में भी अन्य दर्शनों को एकांतिक रूप से मिथ्या बताना यह अनेकांतवादी दर्शन के लिये असम्भव होने से उसका तात्पर्य इतना ही करना पड़ेगा कि यदि अन्य दर्शन अपनी बात का एकांतिक आग्रह रखते हैं तब ही वे मिथ्या होते हैं । यदि वस्तु दर्शन के एक पक्ष को उपस्थित करते हैं तब वे मिथ्या नहीं होंगे । नय के अन्तर्गत होंगे। इसी वजह से नय और दुर्नय का भेद किया गया है । सत्य सम्पूर्ण रूप से भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता । उसके किसी अंश को ही भाषा व्यक्त कर सकती है । यही कारण है कि सर्वज्ञ सब कुछ जानकर भी उसके अंश को ही भाषा में व्यक्त कर सकते हैं। इसीलिये किसी की बात को मिथ्या कह देना बड़ा अपराध होगा और अनेकांतवादी तो वैसा करेगा नहीं। अतएव "तमेव सच्चं" इस वाक्य का अर्थ करने में कदाग्रह करके जैनधर्म को ही सत्य मानना और अन्य सभी दर्शन और धर्मों को मिथ्या मानना यह जैन विचारधारा के, अनेकांत विचारधारा के सर्वथा विपरीत है और केवल कदाग्रह का परिणाम है । उस कदाग्रह से जैनों के लिये बचना अनिवार्य है । अन्यथा वे अनेकांतवादी हो नहीं सकते ।
इसी दृष्टि से आचार्य जिनभद्र ने "तमेव सच्च" यह मानकर भी कहा कि संसार में जितने भी मिथ्यादर्शन हैं, उनका जोड़ ही जैनदर्शन है। यदि ये तथाकथित मिथ्यादर्शन सर्वथा मिथ्या होते तो उनका जोड़ सम्यग्दर्शन कैसे बनता ? अतएव मानना यह आवश्यक है कि तथाकथित मिथ्यादर्शन सर्वथा मिथ्या नहीं, किन्तु कदाग्रह के कारण ही मिथ्या कहे जा सकते हैं। उनकी बात का जो सत्यांश है, उन्हीं का जोड़ पूर्ण सत्य होता । मिथ्या को भी सत्य बनाने वाली यह दृष्टि स्याद्वाददृष्टि है, अनेकांतदृष्टि है । यही दर्शनों की संजीवनी है, जो मिथ्या को भी सत्य बना देती है।
तात्पर्य इतना ही है कि सत्य की ओर ही दृष्टि जाये, मिथ्या की ओर नहीं। तब सर्वत्र सत्य ही सत्य नजर आयेगा और मिथ्या ही ढूंढ़ते जायेंगे तो सर्वत्र मिथ्या ही मिलेगा। हमें अनेकांतवादी होना हो तो हमारी दृष्टि सत्यपरक होनी चाहिए । गुण और दोष तो सर्वत्र रहते हैं । गुण देखने वाले की दृष्टि में गुण आयेगा और दोषदर्शी को दोष ही दिखेगा । अतएव मिथ्यादर्शन से बचना हो तो स्याद्वाद की शरण ही एकमात्र शरण है। अतएव हमें सत्य की खोज में प्रवृत्त होने की आवश्यकता है । यह प्रवृत्ति ऐसी होगी, जिसमें विवाद का कोई प्रश्न ही नहीं होगा, समन्वय ही समन्वय दिखेगा । जीवन में यदि समन्वय आ जाए तो व्यावहारिक और पारमार्थिक दोनों जीवन की सफलता सुनिश्चित है।
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