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२८० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
तत्त्वों के विषय में जैनों की मूल मान्यता वस्तुतः अचरजकारी है, लेकिन ऐसा लगता है कि विज्ञान उसे सिद्ध करता प्रतीत होता है । मस्तिष्क-लहरियों के ज्ञान ने कर्म-परमाणुओं की भौतिकता की बात को सिद्ध कर दिया है । अब केवल इस प्रश्न का उत्तर देना है कि ये कर्म परमाणु कणात्मक हैं या ऊर्जात्मक हैं। ऊर्जा सूक्ष्मतर होती है। ये परमाणु ही विकास के निरोधक और साधक हैं। जीव सम्बन्धी भौतिक वर्गीकरण और निरूपण वर्तमान तथ्यों की तुलना में काफी विसंवादी लगने लगा है। इसी प्रकार अजीव के सम्बन्ध में भी यह स्पष्ट है कि अमूर्त द्रव्यों की बात तो काफी वैज्ञानिक सिद्ध हुई है, पर मूर्त जगत् की बातों में आज की दृष्टि से पर्याप्त अपूर्णता या त्रुटिपूर्णता लक्षित हो रही है । हम पहले जीव और अजीव सम्बन्धी मान्यताओं पर विचार करेंगे ।
वस्तु और द्रव्यमान संरक्षण नियम
जैनदर्शन में वस्तु को उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यत्व से युक्त माना गया है । इनमें उत्पाद व्यय उसके परिवर्तनशील गुणों को निरूपित करते हैं और धोव्यत्व वस्तु में विद्यमान द्रव्य की अविनाशिता को व्यक्त करता है। इस प्रकार प्रत्येक वस्तु में दो प्रकार के गुण पाये जाते हैं । मूल द्रव्य अविनाशी या नित्य रहता है, उसकी संयोगवियोगादि से पर्याय बदलती रहती है । मूल द्रव्य का यह अविनाशित्व लोमन्सोफ और लेवोशिये के द्रव्यमान संरक्षण नियम का ही एक रूप है । जैनदर्शन की मान्यता के अनुसार ऊर्जायें (ऊष्मा, प्रकाश आदि) भी पौद्गलिक हैं । अतः द्रव्य के ध्रौव्यत्व के अन्तर्गत द्रव्यमान एवं ऊर्जा — दोनों के ही संरक्षण की बात स्वयमेव समाहित हो जाती है, लेकिन लेवोशिये के नियम इन दोनों के संयुक्त संरक्षण की बात आइन्स्टीन के ऊर्जा-द्रव्यमान रूपान्तरण- सिद्धान्त की प्रस्तावना के बाद ही ( बीसवीं सदी के द्वितीय दशक में ) आई है । इस संरक्षण नियम में भी यही बताया गया है कि निरन्तर परिवर्तनों के बावजूद भी मूल द्रव्य के द्रव्यमान और ऊर्जा में कोई परिवर्तन नहीं होता । वर्तमान में परमाणविक विखण्डन-क्रियाओं एवं तीव्रगामी किरणों की बमबारी की क्रियाओं में यह देखा गया है कि यूरेनियम या रेडियम आदि तत्त्व द्रव्य द्रव्यान्तरित होकर नये तत्त्वों में परिणत हो जाते हैं । यह तथ्य 'समयसार' के उस मंतव्य से मेल नहीं खाता जिसमें यह कहा गया है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वभाव से ही उत्पन्न होता है, दूसरे द्रव्य से उत्पन्न नहीं हो सकता । इसके बावजूद मी यदि द्रव्य ध्रौव्यत्व से हम द्रव्यमान (भार) के धौव्यत्व का अर्थ ग्रहण करें, तो उसकी अविनाशिता तो बनी ही रहती है । यह उत्पाद-व्यय- ध्रौव्यत्ववाद, सत्कार्यवाद या कारण-कार्यवाद का ही एक अनुगत फल है, जिसे वैज्ञानिक संपोषण प्राप्त है ।
वस्तुस्वरूप का कारण - परमाणुवाद
जैनमत में दृश्यमान भौतिक जगत् को परमाणुमय एवं पौद्गलिक माना है। परमाणु की प्रकृति पर अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया है और उसके कार्यों पर भी विशद प्रकाश डाला गया है । परमाणु अविभागी, अविनाशी, अशब्द, मूर्ति (पंचगुणी), विविक्त एवं इन्द्रिय-अग्राह्य होते हैं । वे लघुतम कण सदा गतिशील होते हैं । इनमें भार एवं कठोरता का गुण नहीं पाया जाता ।
इन लक्षणों में परमाणु की विविक्तता या खोखलापन, गतिशीलता एवं मूर्तिकता वैज्ञानिक तथ्यों से सिद्ध हो चुके हैं। यद्यपि सामान्य इन्द्रियों से परमाणु अब भी अग्राह्य है, फिर भी यांत्रिक इन्द्रियों एवं उपकरणों से उसे भली प्रकार जाँच लिया गया है। अब परमाणु में अविभाजित्व, अविनाशित्व एवं भारहीनता नहीं मानी जाती। कुछ लेखकों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि परमाणु के वर्तमान मौलिक अवयवों को जैनों का परमाणु मानना चाहिए, लेकिन यह ठीक नहीं प्रतीत होता । परमाणुवाद की धारणायें ईसापूर्व सदियों में विश्व के विभिन्न कोनों में व्याप्त थीं और सभी में इन्द्रिय-अग्राह्य अति सूक्ष्म द्रव्य को परमाणु माना गया है । उस समय इससे अधिक की बात नहीं सोची जा सकती थी । हाँ जैनसम्मत परमाणु में कुछ अन्य विशेषतायें मानी गई हैं जैसे परमाणु का ठोस न होकर खोखला होना और संकुचन-प्रसारगुणी होना । गतिशीलता भी ऐसा ही विशिष्ट गुण है। परमाणुओं में शीत-उष्णता एवं स्निग्धरुक्षता उनकी गतिशील प्रकृति के परिणाम हैं। ये उन्हें वैद्य त प्रकृति देते हैं जो उनके विविध संयोगों का मूल है। परमाणु के ये गुण जैन दार्शनिकों की तीक्ष्ण निरीक्षण एवं चिन्तन शक्ति को प्रकट करते हैं ।
एक हात
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