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________________ ------------------------------------------ ॥ श्री सूरजचन्द शाह 'सत्यप्रेमी' (डांगीजी) [जनदर्शन के प्रखर विद्वान व चिन्तक वक्ता] दो अक्षर का 'जिन' शब्द अपने भीतर कितना अर्थ- १ १ गांभीर्य समेटे हुए है कि प्रात्म-विकास की प्रथम सीढ़ी से । शिखर तक की सम्पूर्ण यात्रा इसमें परिव्याप्त है । सरस । और भाव-प्रधान विवेचन किया है-मनीषी श्री डांगीजी ने।। ०००००००००००० ०००००००००००० Chromo--0--0--0--0--0--0--0-0-0--0--0-0--0--0-0--0-05 जिन-शासन का हार्द IANS MumHg S .. CATION .....MA जीव का शिव, नर का नारायण, आत्मा का परमात्मा और ईश्वर का परमेश्वर बनाना ही जिन-शासन का हार्द है। 'जन' का 'जिन' कैसे होता है ? इसे समझें-'जन' शब्द पर ज्ञान और दर्शन की दो मात्राएँ चढ़ जायँ तो वह 'जैन' है और चारित्र की 'इ' शक्ति प्राप्त हो जाय तो 'जिन' । पहले मिथ्यात्व का प्रत्याख्यान होता है अर्थात् उल्टी समझ का त्याग किया जाता है। फिर जितना-जितना संयम या चारित्र्य का परिवर्द्धन होता है उतना-उतना 'जिन' कहलाता है अर्थात् जितना-जितना 'अव्रत' का त्याग होता है उतना-उतना 'जिन' होता है। प्रमाद का त्याग होते ही वह उत्कृष्ट 'जिन' है । कषाय का त्याग होते ही उत्कृष्टतर 'जिन' है और अशुभ योग का त्याग करते ही उत्कृष्टतम 'जिन'। इस प्रकार अपने "सिद्धि गइ नामधेयं" सिद्ध स्थिति नाम वाले ठिकाने पर पहुंचते ही वह सम्पूर्ण 'जिन' कहलाता है । जितना-जितना जीना उतना-उतना 'जिन' होता गया। जब सम्पूर्ण 'जिन' हो गया उसे सिद्ध कहते हैं। उसी के शासन को सिद्धानुशासन यानी जिन-शासन कहते हैं । सम्पूर्ण लोक पर छत्र के समान वे विराजमान है इसी कारण लोकस्थिति है। उस शासन को चलाने के लिये क्षत्रियोत्तम तीर्थकर तीर्थ की स्थापना करते हैं। उन्हीं के अनुशासन में गणधर भगवान 'गण' तंत्र का निर्माण करते हैं । उसी के अनुसार आचार्य देव 'गच्छों' का संचालन करते हैं। स्वयं जिन-शासन में चलते हैं और हम सबको चलाते हैं । 'सम्प्रदाय' समत्व प्रदान करने के लिये स्थापित होते हैं । ममता को दूर करते हैं इसीलिये 'मम् +गल' =मङ्गल कहलाते हैं । जो किसी ममता में रहते हैं वे सम्प्रदायों की मर्यादाएँ मंग करते हैं । पतित होते हैं और भ्रष्ट होकर जन मानस को गन्दा करते हैं। जिस प्रकार जाति-सम्पन्नता 'पुण्य' का लक्षण है और जाति-मद 'पाप' का लक्षण है उसी प्रकार सम्प्रदाय-सम्पन्नता तप' का लक्षण है और तप का मद 'पाप' का लक्षण है । कुल-ऐश्वर्य और रूप-सम्पन्नता 'पुण्य' का लक्षण है और उनका मद 'पाप' का लक्षण है । 'कु-भाव' को पाप कहते हैं और 'सु-भाव' को पुण्य कहते हैं। इसी कारण तीर्थकर प्रभु का उत्तम प्रभाव होता है। 'प्रभाव' को जीव का स्वभाव और अजीव का 'परभाव' समझना 'मिथ्यात्व' है। वह अलग भाव है जो तीर्थंकर के प्रशस्त भाव का तत्त्व है । जो 'सिद्ध-जिन' के स्वभाव की ओर बढ़ाता है। 'मम-भाव' को ही आस्रव तत्त्व कहा है। 'सम-भाव' को ही 'संवर तत्त्व' कहा है जो आचार्य देव का भाव है। 'शुद्ध भाव' को ही 'निर्जरा तत्त्व' कहा है जो उपाध्याय का 'वाङ्मय विग्रह' है । मोक्ष सिद्धि का भाव परम भाव है जो संसार के बंधनरूप विभाव को दूर कर सकता है । यह 'सर्व साधु' का उत्कृष्टतम भाव है । उसी की आराधना करना साधु मार्ग है जो सिद्धानुशासन जिन-शासन का 'हार्द' कहलाता है । इससे इधर-उधर हो जाना 'भटकना' है । यही 'मिथ्यात्व-मोह' है। मध्य में 'लटकना' मिश्र मोह है और सम्यक्त्व में 'अटक' जाना और चारित्र्य की आवश्यकता नहीं समझना 'सम्यक्त्व मोह' है । सत्त्व का अहं है जो 'दर्शन-मोह' कहलाता है । अनन्तानुबंधी कषाय को नष्ट करना हो तो यह दर्शन-मोह 'खटकना' चाहिए । तब सम्यग्दर्शन का प्रकाश होता है । यही 'सुदर्शन चक्र' है। यही 'तीसरा नेत्र' है, जिसके बिना 'ब्रह्म-साक्षात्कार' या परम शांति का दर्शन ही असम्भव है तो -~ SBruntry.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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