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२५८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ
वहाँ तक पहुँचना कैसे हो ? 'हिया-फूटा' व्यवहार भी ठीक-ठीक नहीं निभा सकता तो निश्चय परमार्थ रूप जिन-शासन में कैसे विकास कर सकता है।
आत्म साक्षात्कार या सम्यग्दर्शन होने के बाद ही हम 'चटक-मटक' को छोड़ते हैं। बाहरी चटक में भटकते रहते हैं । अकड़ की पकड़ में जकड़े हैं। 'अव्रत' का प्रत्याख्यान प्रारम्भ किया कि चटक मटक छूटी और जब वैषयिक द्वन्द्वों से छटक जाते हैं तब 'प्रमाद' को छोड़कर अशुभ योग की प्रवृत्ति से दूर रहते हैं। शुभ योग भी निवृत्त होता है तब, निर्वाण, मुक्ति, सिद्धि और सम्पूर्ण जिन-शासन का लक्ष्य सम्पन्न होता है। पक्षी का पक्ष-पात हो गया कि उड़ना 'बंद' उसी प्रकार संन्यासी, त्यागी, साधु-यति और सत्पुरुष सती व्यवहार या निश्चय दोनों में से किसी एक पक्ष को छोड़ देता है तो पतित हो जाता है और अपने स्थान पर नहीं पहुँच सकता । अगर आपको जिन शासन का 'हार्द' समझना हो तो इन बारह पंक्तियों का मननपूर्वक अनुप्रेक्षण करें, द्वादशांगरूप जिनवाणी का रहस्य हृदयंगम हो जायगा । यह 'तत्त्वतात्पर्यामृत' महाग्रन्थ का एक छोटा सा 'अंश' है
रुकी द्वि-जन्मा दौड़ । पहुँचे अपनी ठौड़ || तपश्चारित्र्य से ।
पक्षपात ज्यों ही हुआ, उभय पक्ष पक्षी उड़े, पहुँचे अपनी ठौड़ ज्ञान सुदर्शन नयन परम पावित्र्य से | 'अटकन' 'भटकन - लटकन' छोड़ सिधायगा । 'सूर्य चन्द्र' 'खटकन' से प्रभुपद पायगा ॥ 'चटक-मटक' को छोड़कर 'झटक' मोह अज्ञान । प्राप्त वीर्य सुख भोग सब निर्मल निश्छल ज्ञान ॥ निर्मल निश्चल ध्यान वेदना दूर हो । 'शम' जीवन सौन्दर्य मधुर भरपूर हो ॥ 'सूर्य-चन्द्र' तन का भी मटका 'गटक' स्वयंभू स्वरस द्वन्द्व से पटककर द्वन्द्व से भोगोपभोग करते रहना ही 'जिन शासन' का 'हार्द' है । भोगोपभोग की अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग को भी दूर करना है पर भोगोपभोग की 'सल्लं कामा विष कामा'
पटका जा ।
छटक जा ॥
तन का मटका धर्मध्यान, शुक्लध्यान द्वारा
छटक जाना और निरन्तर स्वयंभू स्वरस का अन्तराय दूर करना ही ध्येय है। मिध्यात्व, उपलब्धि ही सिद्धि है ।
काम मोग शल्य रूप विष है, परन्तु स्वयंभू स्वरस का भोगोपभोग ध्येय है । पुण्य का फल 'साता', पाप का फल ‘असाता' । आस्रव का फल 'दुःख', 'संवर' का फल 'सुख' । निर्जरा का फल 'शांति' और 'मोक्ष' का फल सिद्धि है । सभी तत्त्वों का भिन्न-भिन्न फल है। जीव तत्त्व का दर्शन कर अजीव तत्व का ज्ञान करके सभी तत्त्वों के उत्तम फल को यथार्थं विधि से प्राप्त करना ही जिन शासन का 'हार्द' है । अर्हत के पुण्य तत्त्व का उपकार, सिद्ध के जीव तत्त्व का आधार, आचार्य के संवर तत्व का आचार, उपाध्याय के निर्जरा तत्त्व का विचार, सर्वसाधु के मोक्ष तत्त्व का संस्कार ही जीवन का उद्धार है। जिन शासन का सार है । सम्यग्दृष्टि के व्यवहार से अजीव तत्त्व को छोड़ो, सम्यग्ज्ञानी के सुधार से पाप तत्त्व का नाश करो। सम्यक्चारित्र के विहार से आस्रव रोको और सम्यक्तप के स्वीकार से बंध तोड़ो। तभी
ऐसो पंचनमुक्कारो सव्व मंगलाणं च सब्वेसि पढमं
क्रमशः आनन्द, मंगल, सुख-चैन और शांति होगी ।
पावपणासणो । इवइ मंगलम् ||
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