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गुणस्थान-विश्लेषण | २४५
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अनुभव करता है पर जैनशास्त्रों में संक्षेप से वर्गीकरण करके उनके चौदह विभाग (Stages or Ladders) किये हैं। जो चौदह गुणस्थान कहाते हैं ।
सब आवरणों में मोह का आवरण प्रधान (Dominant) है। जब तक मोह बलवान व तीव्र हो तब तक अन्य सभी आवरण बलवान व तीव्र बने रहते हैं। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोटाकोटी सागरोपम की है, जबकि ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अन्तराय की ३० कोटाकोटी सागरोपम, आयु की ३३ सागरोपम व नाम, गोत्र की प्रत्येक की उत्कृष्ट स्थिति २० कोटाकोटी सागर है। मोहनीय कर्म के आवरण निर्बल होते ही अन्य आवरण भी शिथिल पड़ जाते हैं। अतः आत्मा के विकास में मुख्य बाधक मोह की प्रबलता व मुख्य सहायक मोह की शिथिलता (मंदता) समझें। इसी हेतु गुणस्थानों-विकास क्रमगत अवस्थाओं की कल्पना (Gradation) मोह-शक्ति की उत्कटता, मंदता, अमाव पर अवलंबित है।
मोह की प्रधान शक्तियाँ दो हैं-(१) दर्शनमोहनीय, (२) चारित्रमोहनीय । इसमें से प्रथम शक्ति आत्मा का दर्शन अर्थात् स्वरूप-पररूप का निर्णय (Discretion) किंवा जड़-चेतन का विवेक नहीं करने देती। दूसरी शक्ति आत्मा को विवेक प्राप्त कर लेने पर भी तदनुसार प्रवृत्ति अर्थात् अभ्यास-पर-परिणति से छूटकर स्वरूपलाभ नहीं करने देती। चारित्र-आचरण में बाधा पहुँचाती है । दूसरी शक्ति पहली की अनुगामिनी है । पहली शक्ति के प्रबल होते दूसरी निर्बल नहीं होती-पहिली शक्ति के क्रमशः मन्द, मन्दतर, मन्दतम होते ही दूसरी शक्ति भी क्रमशः वैसी ही होने लगती है। अपर शब्दों में, एक बार आत्मा स्वरूप दर्शन कर पावे तो उसे स्वरूप लाभ करने का मार्ग प्राप्त हो जाता है।
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गुणस्थानों का विभागीकरण (१) मिथ्यादृष्टि गुणस्थान-मिथ्यात्व मोहनीय कर्मोदय से जिस जीव की दृष्टि (श्रद्धा-प्रतिपत्ति-Faith) मिथ्या (उलटी, विपरीत) हो जाती है, वह तीव्र मिथ्यादृष्टि कहलाता है। जो वस्तु तत्त्वार्थ है उसमें श्रद्धान नहीं करता विपरीत श्रद्धान रखता है-अतत्त्व में तत्त्वबुद्धि-जो वस्तु का स्वरूप नहीं उसको यथार्थ मान लेना-जो अयथार्थ स्वरूप है उसको यथार्थ मान लेना।" जड़ में चेतन मान लेना, भौतिक सुखों में आसक्ति रखना (Hedonism), आत्मा नाम का पदार्थ ही नहीं स्वीकारना, देव-गुरु-धर्म में श्रद्धा नहीं रखना । जिस प्रकार पित्त ज्वर से युक्त रोगी को मीठा रस भी रुचता नहीं-- उसी प्रकार मिथ्यात्वी को भी यथार्थ धर्म अच्छा नहीं मालूम होता है। इसके विस्तृत भेद होते हैं। जो नितान्त भौतिकवादी हो।
प्रश्न-मिथ्यात्वी जीव की जबकि दृष्टि अयथार्थ है तब उसके स्वरूप विशेष को गुणस्थान क्यों कहा?
उत्तर-यद्यपि मिथ्यात्वी जीव की दृष्टि सर्वथा अयथार्थ नहीं होती तथापि वह किसी अंश में यथार्थ भी होती है । वह मनुष्य, स्त्री, पशु, पक्षी, आदि को इसी रूप में जानता तथा मानता है। जिस प्रकार बादलों का घना आच्छादन होने पर भी सूर्य की प्रभा सर्वथा नहीं छिपती-किन्तु कुछ न कुछ खुली रहती है जिससे दिन-रात का विभाग किया जा सके, इसी प्रकार मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का प्रबल उदय होने पर भी जीव का दृष्टिगुण सर्वथा आवृत नहीं होता। किसी न किसी अंश में उसकी दृष्टि यथार्थ होने से उसके स्वरूप विशेष को गुणस्थान कहा, किसी अंश में यथार्थ होने से ही उसको सम्यग्दृष्टि भी नहीं कह सकते । शास्त्रों में तो ऐसा कहा गया है कि सर्वज्ञ प्रोक्त १२ अंगों में से किसी एक भी अक्षर पर भी विश्वास न करे तो उसकी गणना भी मिथ्यादृष्टि में की गई है। इस गुणस्थान में उक्त दोनों मोहनीय की शक्तियों के प्रबल होने से आत्मा की आध्यात्मिक शक्ति नितान्त गिरी हुई होने से इस भूमिका में आत्मा चाहे आधिभौतिक उत्कर्ष कितना ही प्राप्त कर ले पर उसकी प्रवृत्ति तात्त्विक लक्ष्य से सर्वथा शून्य होने से मिथ्यादृष्टि ही कहा जाता है। परवस्तु के स्वरूप को न समझकर उसी को पाने की उधेड़बुन में वास्तविक सुख (मुक्ति) से वंचितरहता है। इस भूमिका को 'बहिरात्मभाव' वा 'मिथ्यादर्शन' कहा है। इस भूमिका में जितने आत्मा वर्तमान होते हैं उन सबों की भी आध्यात्मिक स्थिति एक-सी नहीं होती। किसी पर मोह का प्रभाव गाढ़तम, किसी पर गाढ़तर, किसी पर अल्प होता है। विकास करना प्राय: आत्मा का स्वभाव है अतः जानते-अजानते जब उस पर मोह का प्रभाव कम होने लगता है तब वह विकासोन्मुख होता
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