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२४६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
हुआ तीव्रतम रागद्वेष को मन्द करता हुआ मोह की प्रथम शक्ति को छिन्न-भिन्न करने योग्य (ग्रन्थिभेद) आत्मबल प्रकट कर लेता है। जिसका वर्णन आगे करेंगे।
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(२) सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान-जो जीव औपशमिक सम्यक्त्व प्राप्त कर चुका है परन्तु अनन्तानुबंधी कषाय के उदय से सम्यक्त्व को वमन कर मिथ्यात्व की ओर झुक रहा है परन्तु मिथ्यात्व को अभी तक स्पर्श नहीं किया, इस अन्तरिम अवस्था (जिसकी स्थिति जघन्य १ समय, उत्कृष्ट ६ आवलिका प्रमाण है ) को सासादन सम्यग्दृष्टि कहा है । यद्यपि इस जीव का झुकाव मिथ्यात्व की ओर होता है तथापि जैसे खीर खाकर वमन करने वाले मनुष्य को खीर का 'आस्वादन' आने से इस गुणस्थान को 'सास्वाद' सम्यकदृष्टि गुणस्थान कहा है। यद्यपि इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा आत्मशुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है परन्तु यह उत्क्रान्ति स्थान नहीं कहा जाताक्योंकि प्रथम स्थान को छोड़कर उत्क्रान्ति करने वाला आत्मा इस दूसरे गुणस्थान को सीधे तौर से प्राप्त नहीं करता . अपितु ऊपर के गुणस्थान से गिरने वाला (Somersault) आत्मा ही इसका अधिकारी बनता है-अधःपतन मोह के उद्रेक से तीव्र कषायिक शक्ति के आविर्भाव से पाया जाता है-स्वरूप बोध को प्राप्त करके भी मोह के प्रबल थपेड़ों से आत्मा पूनः अधोगामिनी बनती है।
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(३) सम्यगमिथ्यादृष्टि (मिश्र) गुणस्थान-मिथ्यात्व के जब अर्द्धविशुद्ध पुज (आगे वर्णन आवेगा) का उदय होता है तब जैसे गुड़ से मिश्रित दही का स्वाद कुछ खट्टा, कुछ मधुर-मिश्र होता है। उसी प्रकार जीव की दृष्टि कुछ सम्यक् (शुद्ध), कुछ मिथ्या (अशुद्ध)-मिश्र हो जाती है। इस गुणस्थान के समय में बुद्धि में दुर्बलता-सी आ जाती है जिससे जीव सर्वज्ञ प्रोक्त तत्त्वों में न तो एकान्त रुचि रखता है न एकान्त अरुचि बल्कि नालिकेर द्वीपवासीवत् मध्यस्थभाव रखता है । इस गुणस्थान में न तो केवल सम्यग्दृष्टि न केवल मिथ्यादृष्टि किन्तु दोलायमान स्थिति वाला जीव बन जाता है । उसकी बुद्धि स्वाधीन न होने से देहशील हो जाती है, न तो तत्त्व को एकान्त अतत्त्वरूप समझता है, न अतत्त्व को तत्त्वरूप-तत्त्व-अतत्त्व का वास्तविक विवेक नहीं कर सकता है । इसकी दूसरे गुणस्थान से यह विशेषता है कि कोई आत्मा प्रथम गुणस्थान से निकलकर सीधा ही तीसरे गुणस्थान को पहुंचता है-कोई अपक्रान्ति करने वाला आत्मा चतुर्थादि गुणस्थान से पतन कर इस गुणस्थान को प्राप्त करता है। उत्क्रान्ति व अपक्रान्ति करने वाले दोनों प्रकार के आत्माओं का आश्रय यह तीसरा गुणस्थान है। सम्यक्त्व प्राप्ति की पूर्व भूमिकाएँ
जीव अनादि काल से संसार में पर्यटन कर रहा है और तरह-तरह के दुःखों को पाता है। जिस प्रकार पर्वतीय नदी का पत्थर इधर-उधर टकराकर गोल-चिकना बन जाता है उसी प्रकार जीव अनेक दुःख सहते हुए कोमल शुद्ध परिणामी बन जाता है । परिणाम इतने शुद्ध हो जाते हैं कि जिसके बल से जीव आयु को छोड़ शेष सात कर्मों की स्थिति को पल्योपमासंख्यातभागन्यून कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण कर देता है । इस परिणाम का नाम शास्त्रीय भाषा में यथाप्रवृत्तिकरण कहा गया है। जब कोई अनादि मिध्यादृष्टि जीव प्रथम बार सम्यक्त्व ग्रहण करने के उन्मुख होता है तो वह तीन१० उत्कृष्ट योग लब्धियों से युक्त-करणलब्धि (दिगम्बर मत से चार लब्धि से युक्त करणलब्धि) करता है । करण–'परिणाम लब्धि-शक्ति प्राप्ति । उस जीव को उस समय ऐसे उत्कृष्ट परिणामों की प्राप्ति होती है जो अनादि काल से पड़ी हुई मिथ्यात्व रूपी रागद्वेष की ग्रन्थि-गूढ गाँठ को भेदने में समर्थ होते हैं वे परिणाम तीन प्रकार के हैं-१. यथाप्रवृत्तिकरण' २ २. अपूर्वकरण, ३. अनिवृत्तिकरण । यह क्रमशः होते हैं, प्रत्येक का काल अन्तमुहूर्त है।
_ यथाप्रवृत्तिकरण-इस करण (परिणामों) द्वारा जीव रागद्वेष की एक ऐसी मजबूत गाँठ, जो कि कर्कश, दृढ़, दुर्भद होती है वहाँ तक आता है, उसी को ग्रन्थिदेश१३ प्राप्ति कहते हैं। अभव्य जीव १४ भी ग्रन्थिदेश को प्राप्त कर सकते हैं अर्थात् कर्मों की बहुत बड़ी स्थिति को घटाकर अन्तः कोटाकोटी सागरोपम प्रमाण कर सकते हैं । परन्तु रागद्वेष की दुर्भेद ग्रन्थि को वे तोड़ नहीं सकते । कारण उनको विशिष्ट अध्यवसाय की न्यूनता है-मोहनीय कर्म की सर्वोपशमना नहीं कर सकने से उनको औपशमिक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होती। इस ग्रन्थिप्रदेश में संख्येय, असंख्येय
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