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________________ ---0--0-0-0-0-0-0--0--0--0--0-0--0-0------- हिम्मतसिंह सरूपरिया R. A. S., B. Sc. M. A., LL. B. साहित्यरत्न, जैनसिद्धान्ताचार्य ०००००००००००० 000000000000 जैन मनोविज्ञान को समझने के लिए 'गुणस्थान' को है समझना आवश्यक है । मनोदशाओं का आध्यात्मिक विश्लेषण, उतार-चढ़ाव और भावधारा का प्रवाह 'गुरणस्थान-क्रम' समझ लेने पर सहज ही समझ में पा सकता है। प्रस्तुत लेख 'गुरणस्थान-विश्लेषण' में लेखक प्राचीन ३ सन्दर्भो के साथ नवीन मनोवैज्ञानिक शैली लिए चला है। 0--0--0--0--0 ho-o---------------------0-0-0-0-0--3 जैन मनोविज्ञान का एक गंभीर पक्ष INTER गुणस्थान-विश्लेषण TNIK EASA :/ परिभाषा गुणस्थान-यह जैन वाङ्मय का एक पारिभाषिक शब्द है-गुणों अर्थात् आत्मशक्तियों के स्थानों-विकास की ऋमिक अवस्थाओं (Stages) को गुणस्थान कहते हैं; अपर शब्दों में-ज्ञान-दर्शन-चारित्र के स्वभाव, स्थान-उनकी तरतमता। मोहनीय कर्म के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम व योग के रहते हुए जिन मिथ्यात्वादि परिणामों के द्वारा जीवों का विभाग किया जावे, वे परिणाम-विशेष गुणस्थान कहे जाते हैं। जिस प्रकार ज्वर का तापमान थर्मामीटर से लिया जाता है उसी प्रकार आत्मा का आध्यात्मिक विकास या पतन नापने के लिए गुणस्थान एक प्रकार का Spirituometer है। आत्मिक शक्तियों के आविर्भाव की-उनके शुद्ध कार्य रूप में परिणत होते रहने की तरतमभावापन्न अवस्थाओं का सूचक यह गुणस्थान है । साधारणतया प्रत्येक जीवन में गुण और अवगुण के दोनों पक्ष साथ चलते हैं। जीवन को अवगुणों से मोड़कर गुण-प्राप्ति की ओर उन्मुख किया जावे व जीवन अभी कहाँ चल रहा है यह जानकर उसको अन्तिम शुद्ध अवस्था में पहुँचाया जावे यही लक्ष्य इन गुणस्थानों का है। आत्मा के क्रमिक विकास का वर्णन वैदिक व बौद्ध प्राचीन दर्शनों में उपलब्ध होता है। वैदिक दर्शन के योगवाशिष्ठ, पातंजलयोग में भूमिकाओं के नाम से वर्णन है-जबकि बौद्धदर्शन में ये अवस्थाओं के नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु गुणस्थान का विचार जैसा सूक्ष्म, स्पष्ट व विस्तृत जैनदर्शन में है वैसा अन्य दर्शनों में नहीं मिलता। दिगम्बर साहित्य में संक्षेप, ओघ, सामान्य व जीवसमास इसके पर्याय शब्द पाये जाते हैं। आत्मा का वास्तविक स्वरूप (Genuine Nature) शुद्ध चेतना पूर्णानन्दमय (Full Knowledge, Perception, Infinite Beatitude) है, परन्तु इस पर जब तक कर्मों का तीव्र आवरण छाया हुआ है, तब तक उसका असली स्वरूप (Potential Divinity) दिखाई नहीं देता। आवरणों के क्रमशः शिथिल व नष्ट होते ही इसका असली स्वरूप प्रकट होता है (Realisation of self) । जब तक इन आवरणों की तीव्रता गाढ़तम (Maximum) रहे तब तक वह आत्मा प्राथमिक—अविकसित (unevolved) अवस्था में पड़ा रहता है। जब इन आवरणों का कृत्स्नतया सम्पूर्ण क्षय (Total Annihilation) हो जाता है तब आत्मा चरम-अवस्था (Final Stage) शुद्ध स्वरूप की पूर्णता (Puremost Divinity) में वर्तमान हो जाता है। जैसे-जैसे आवरणों की तीव्रता कम होती जाती है वैसे-वैसे आत्मा भी प्राथमिक अवस्था को छोड़कर धीरे-धीरे शुद्धि लाभ करता हुआ चरम विकास की ओर उत्क्रान्ति करता है। परन्तु प्रस्थान व चरम अवस्थाओं के बीच अनेक नीची-ऊँची अवस्थाओं का अनुभव करता है। प्रथम अवस्था अविकास की निष्कृट व चरम अवस्था विकास की पराकाष्ठा है। विकास की ओर अग्रसर आत्मा वस्तुतः उक्त प्रकार की संख्यातीत आध्यात्मिक भूमिकाओं का ABR0 圖圖圖圖圖 com Jan Education antematonal For Private Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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