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२३२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ
अवलम्बित है । मोदक कितने दानों से बना है, यह संख्या पर स्थित है। मोदक की यह प्रक्रिया ठीक कर्म-बन्धन की प्रक्रिया का सुन्दर निदर्शन है।
कर्म दो प्रकार के हैं- द्रव्य कर्म और भाव कर्म ।
कर्म प्रायोग्य पुद्गल स्कन्ध द्रव्यकर्म है । उन द्रव्य कर्मों के तदनुरूप परिणत आत्म-परिणाम भाव कर्म है। बन्धन के हेतु
बन्धन सहेतुक होता है निर्हेतुक नहीं । आत्मा और कर्म का सम्बन्ध भी निर्हेतुक नहीं है। पवित्र सिद्धात्माएँ कभी कर्म का बन्धन नहीं करतीं, क्योंकि वहाँ बन्धन के हेतु नहीं हैं। मलिन आत्मा ही कर्म का बन्धन करती है । कर्म बन्धन के दो हेतु हैं—-राग और द्वेष । इन दोनों का संसारी आत्मा पर एक ऐसा चेप है जिस पर कर्मप्रायोग्य पुद्गल स्कन्ध पर चिपकते हैं । आगम की भाषा में रागद्वेष कर्म के बीज हैं। सघन बन्धन सकषायी के होता है अकषायी के पुण्य बन्धन केवल दो स्थिति के होते हैं । राग-द्वेष को कर्मों का बीज मानने में भारतीय इतर दर्शन भी साथ रहे हैं । पातञ्जल योगदर्शन में कर्माशय का मूल क्लेश हैं । जब तक क्लेश हैं तब तक जन्म, आयु, भोग
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होते हैं।
व्यास ने लिखा है : क्लेशों यह नहीं होता । छिलके युक्त चावलों से अक्षपाद कहते हैं - जिनके ६ जैनदर्शन ने कहा- बीज के
के होने पर ही कर्मों की शक्ति फल दे सकती है। क्लेश के उच्छेद होने पर अंकुर पैदा हो सकते हैं । छिलके उतार देने पर उनमें प्रजनन शक्ति नहीं रहती । क्लेश क्षय हो गये हैं उनकी प्रवृत्ति बन्धन का कारण नहीं बनती । दग्ध होने पर अंकुर पैदा नहीं होते । कर्म के बीज दग्ध होने पर भवांकुर
पैदा नहीं होते।
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बन्धन हेतुओं की व्याख्या में भिन्न-भिन्न संकेत मिलते हैं मूलाचार में चार हेतुओं का उल्लेख है । तत्त्वार्थ सूत्र में पाँच हेतु आये हैं । किसी ने कषाय और योग इन दो को ही माना । भगवती सूत्र में में प्रमाद और योग का संकेत है। संख्या की दृष्टि से तात्त्विक मान्यता में प्रायः विरोध पैदा नहीं होता । व्यास में अनेक भेद किए जा सकते हैं, समास की भाषा में संक्षिप्त मी । किन्तु मीमांसनीय यह है कि कषाय और योग इन दो हेतुओं से कर्म बन्धन की प्रक्रिया में दो विचारधारा हैं । एक परम्परा यह है कि- - कषाय और योग इन दोनों के सम्मिश्रण से कर्म का बन्धन होता है । कषाय से स्थिति और अनुभाग का बन्धन होता है और योग से प्रकृति और प्रदेश का । दूसरी परम्परा में दोनों स्वतन्त्र भिन्न-भिन्न रूप से कर्म की सृष्टि करते हैं। पाप का बन्धन कषाय या अशुभ योग से होता है। पुण्य का बन्ध केवल शुभ योग से होता है । पहली परम्परा में मन्द कषाय से पुण्य का बंधन मानते हैं। दूसरी परम्परा में सकषायी के पुण्य का बन्धन हो सकता है पर कषाय से कभी पुण्य का बंधन नहीं होता । भले वह मन्द हो या तीव्र ।
१ कर्मग्रन्थ २, पयइठिइरसपएसा तं चउहा मोयगस्स दिट्ठता ।
२ अ० ३२।७ - रागो य दोसो विय कम्मबीयं ।
३ यो० सू० २- १२ " क्लेशमूलः कर्माशयो दृष्टादृष्ट जन्म वेदनीयः "
४ बो० सू० २ १२ सतिमूले सपाको जात्यायुभोगाः
५ व्यास भाष्य २-१३
६ गौतम सूत्र ४-१-६४ " न प्रवृत्ति प्रतिसन्धानाय हीनक्लेशस्य "
७ तत्त्वार्थाधिगम भाष्य--१०-७
मिच्छा दंसण अविरदि कषाय जोगा हवंति बंधस्स" - मूलाचार १२-१६
तत्त्वार्थ सूत्र ८ - १ मिथ्या दर्शनाविरति प्रमाद कषाय योगा बन्ध हेतवः । १० भगवती १।३।१२७ - पमाद पच्चया जोग निमित्तंच ।
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