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६ अमूर्त प्रात्मा और निराकार चेतना सुख-दुःख का
- साध्वी संघमित्रा १ भागी क्यों होता है ? जन्म-पुनर्जन्म का कारण क्या है ? १ [जैन श्वे० तेरापंथ संघ की प्रसिद्ध विदुषी थमणी]
सृष्टिक्रम एक व्यवस्थित ढंग से क्यों गतिमान है—इन सब का समाधान....'कर्म-सिद्धान्त' में निहित है। कर्म-सिद्धान्त जैनदर्शन का मूलाधार तो है ही, किन्तु प्रत्येक भारतीय दर्शन ने उसे कहाँ, कैसे, किस रूप में स्वीकार किया हैइसका विश्लेषण प्रस्तुत प्रबंध में पढ़िए ।
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कर्म-सिद्धान्त : मनन और मीमांसा
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कर्म-सिद्धान्त भारत के उर्वर मस्तिष्क की उपज है। ऋषियों के दीर्घ तपोबल से प्राप्त नवनीत है। यथार्थ में आस्तिक दर्शनों का भव्य प्रासाद कर्म-सिद्धान्त पर ही टिका हुआ है। कर्म के स्वरूप-निर्णय में भले विचारैक्य न रहा हो, पर अध्यात्म-सिद्धि कर्म-विमुक्ति के बिन्दु पर फलित होती है-इसमें कोई दो मत नहीं हैं। प्रत्येक दर्शन ने किसी न किसी रूप में 'कर्म' की मीमांसा की है। पर जैन दर्शन ने इसका चिन्तन विस्तार व सूक्ष्मता से प्रस्तुत किया है। कर्म का शाब्दिक रूप
लौकिक भाषा में 'कर्म' कर्त्तव्य है । कारक की परिधि में २ कर्ता का व्याप्य कर्म है। पौराणिकों ने व्रतनियम को कर्म कहा । सांख्य दर्शन में पांच सांकेतिक क्रियाएँ 'कर्म' अभिधा से व्यवहृत हुई। जैन दृष्टि में कर्म वह तत्त्व है, जो आत्मा से विजातीय-पौद्गलिक होते हुए भी उससे संश्लिष्ट होते हैं और उसे प्रभावित करते हैं । कर्मों की सृष्टि
सद्-असद् प्रवृत्ति से प्रकम्पित आत्म-प्रदेश पुद्गल-स्कंध को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। आकृष्ट पुद्गल स्कन्धों में से कुछ आत्म-प्रदेशों पर चिपक जाते हैं शेष विजित हो जाते हैं। चिपकने वाले पुद्गल स्कन्धः 'कर्म' कहलाते हैं।
१. (क) उत्तराध्ययन ३२/२ "रागस्स दोसस्स य संखएणं-एगंत सोक्खं समुवेइ मोक्खं ।' (ख) हरिभद्रसूरि-षड्दर्शन, श्लोक ४३–प्रकृति वियोगो मोक्षः । (ग) जयन्त न्याय-मंजरी-पृष्ठ ५०८-"तदुच्छेदे च तत्कार्य शरीराद्यनुपप्लवात् नात्मनः सुख दुःखेस्त:-इत्यसो
मुक्त उच्यते।" (घ) धर्मबिन्दु पृ० ७६-चित्तमेव ही संसारो-रागादिक्लेश वासितम् ।
तदेव ते विनिर्मुक्तं-भवान्त इति कथ्यते । २. कालु कौमुदी-कारक-सू-३ कर्तुाप्यं कर्म । ३. हरिभद्र सूरि-षड्दर्शन, श्लोक ६४ । ४. आचार्य श्री तुलसी-जैन-सिद्धान्त दीपिका, प्रकाश ४/१
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