SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 276
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - आत्मतत्त्व : एक विवेचन] २२६ 000000000000 ०००००००००००० जीव अपने कार्मण शरीर के साथ उन स्थानों में गमन करता है, जहाँ नूतन शरीर धारण करना हो । नूतन शरीर में जब आत्मा प्रवेश करता है, उसी के अनुरूप वह अपने प्रदेशों का विस्तार या संकोचन कर लेता है । यही बात द्रव्यसंग्रह में कही है।' संसारावस्था में आत्मा शरीर प्रमाण है और मुक्तावस्था में जिस शरीर से आत्मा मुक्ति को प्राप्त करता है, उससे कुछ न्यून परिमाण में सिद्ध शिला पर स्थित रहता है । यह मान्यता जैनदर्शन की अपनी है। ___ आत्माएँ अनंत हैं। सभी आत्माएँ अपनी-अपनी कर्तत्व शक्ति से कर्मों का अर्जन करते हुए भोग भोगते हैं। संसार में अनेक जीव दिखाई पड़ते हैं, अत: उन्हीं का निषेध करते हुए एक मानना और यह कहना कि नाना शरीर के कारण आत्माएँ भिन्न-भिन्न मालूम पड़ते, जबकि आत्मा एक है। यह मत इष्ट नहीं । अनेक आत्माओं को जैनदर्शन, बौद्ध न्याय, वैशेषिक और पूर्व मीमांसा दर्शन ने स्वीकार किया है । वेदान्त में मात्र एक आत्मा को मौलिक माना है। अन्य का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं माना। अनेक-एक भिन्न-भिन्न मानने में शंकराचार्य से लेकर वल्लभाचार्य तक ऊहापोह हुआ है। आत्मा के भेद 'स्थानांग सूत्र' में 'एगे आया' 'आत्मा एक है' कहा है। स्वरूप के दृष्टिकोण से आत्मा में भेद नहीं। जो स्वरूपसिद्ध जीव का है वही संसारी जीव का है । परन्तु इसी आगम में आठवें स्थान में आठ प्रकार के आत्मा कहे हैं(१) द्रव्य आत्मा, (२) कषायात्मा, (३) योगात्मा, (४) उपयोगात्मा, (५) ज्ञानात्मा, (६) दर्शनात्मा, (७) चारित्रात्मा और (८) वीर्यात्मा। प्रथम जो कथन किया गया है वह निश्चय दृष्टि से, और दूसरा कथन व्यवहार दृष्टि से है। संसारी आत्मा कषायसहित है और सिद्धात्मा उससे रहित । 'योगसार' में आत्माओं के तीन भेद किये हैं-१. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा, ३. परमात्मा । बहिरात्मा मिथ्यादृष्टि से युक्त होता है और उसका संसार से उद्धार होना कठिन होता है । जिन आत्माओं में अन्तरात्मा और परमात्मा रूप प्रकट होने की योग्यता नहीं, उन आत्माओं को अभव्य कहा है और जिनमें योग्यता है, उनको भव्य । अन्तरात्मा के तीन भेद किये हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य । रागद्वेष की तरतमता की अपेक्षा ये तीन भेद किये हैं। 'समाधि-शतक' में अन्तरात्मा के विषय में बड़े विस्तार से विवेचन है । परमात्मा के दो भेद किये हैं-1. सकल परमात्मा और निकल परमात्मा । सकल परमात्मा अर्हत् है और विकल परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी । द्रव्य संग्रह में इन्हीं की व्याख्या दी है। सभी जीव अनादिकाल से कर्म बंधन से युक्त हैं और इसी कारण वे संसार में परिभ्रमण कर रहे हैं । कर्म बंधन की चार अवस्थाएँ है—१. प्रकृति बंध, २. प्रदेश बंध, ३. स्थिति बंध और ४. अनुभाग बंध । योग और कषाय के सम्बन्ध से आत्मा कर्म बंधन में पड़ जाता है।५ शक्ति की अपेक्षा प्रत्येक आत्मा सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान, अगुरुलघुत्व, अवगाहनत्व, सूक्ष्मत्व, वीर्य, अव्याबाध इन आठ गुणों से युक्त है, परन्तु अभिव्यक्ति की अपेक्षा तारतम्य रहने से आत्गा के उक्त तीन भेद किये गये हैं। इसके अतिरिक्त आगम में सर्वसामान्य जीव के दो भेद किये हैं-(१) सिद्ध और (२) संसारी । फिर संसारी जीव के दो भेद किये हैं-(१) त्रस और (२) स्थावर । त्रस के दो भेद हैं--(१) लब्धित्रस, (२) गतित्रस । स्थावर के पाँच भेद हैं--पृथ्वी, अप, तेजस्, वायु और वनस्पति । इसके अतिरिक्त गति, इन्द्रिय, पर्याप्ति, संज्ञादि के भेद से जीवों के अनेक भेद हो सकते हैं । आगम में जीव के ५६३ भेद भी देखने में आते हैं। KO ASS . १ द्रव्यसंग्रह : गा० १०, ३३, योगसार : गा०६ । २ योगसार : गा०६। ३ समाधि शतक : ३१, ६०। ४ द्रव्यसंग्रह : गा० १४ । ५ स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षा : गा० १०२-१०३ । angali कारक
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy