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________________ 000000000000 * 000000000000 २२८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ 'प्राण' आत्मा है | शरीर, मन और प्राण को आत्मा मानने की प्रक्रिया से और चिंतन के गहराई में उतरने के बाद मनन करते-करते परिज्ञान हुआ कि शरीर आत्मा नहीं, इन्द्रिय आत्मा नहीं, मन आत्मा नहीं, प्राण आत्मा नहीं । ये सब भौतिक हैं, नाशवंत हैं । परन्तु आत्मा शाश्वत है। इसी चिंतन से भौतिक की ओर से अभौतिक का चिंतन होने लगा । आत्मा मौतिक नहीं, अभौतिक है, यह सिद्ध हुआ । 'समयसार में कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं— 'न आत्मा में रूप है, न रस है, न स्पर्श है और न गन्ध है । यह संस्थान और संहनन से रहित है। राग, द्वेष, मोह आत्मा के स्वरूप नहीं । (जीव में न आस्रव है, न वर्ण है, न वर्गणायें हैं, न स्पर्धक हैं, और न अनुभाग स्थान, न क्लेश स्थान हैं। यह आत्मा शुद्ध, बुद्ध और ज्ञानमय है । 'ज्ञानमय' स्वरूप तक आत्मा के बारे में जानकारी है । कर्म बंध और उससे मुक्ति का भी विचार हुआ है। आत्मा के प्रदेश और विस्तार जैन दर्शन में षद्रव्य माने गये हैं । काल द्रव्य के अतिरिक्त पाँच द्रव्य अस्तिकाय है । काल-द्रव्य २ अनस्तिकाय है । प्रदेशों के समूह को अस्तिकाय कहते हैं और एक ही प्रदेश हो, प्रदेशों का समूह न हो, उसे अनस्तिकाय कहते हैं । जैन दर्शन की मान्यता है कि जिस द्रव्य में एक प्रदेश हो, वह एक प्रदेशी और जिसमें दो आदि, संख्यात, असंख्यात, अनंत प्रदेश हों वह बहुप्रदेशी द्रव्य है । जीव, धर्म, अधर्म, द्रव्य असंख्यात प्रदेशी हैं । यहाँ शंका होती है कि प्रदेश किसे कहा जाय ? 'एक अविभागी पुद्गल परमाणु जितने आकाश को स्पर्श करता है, उतने देश को प्रदेश कहा है । जीव द्रव्य के प्रदेश की विशेषता यह है कि, वह बड़े या लघु जिस प्रकार का शरीर प्राप्त हुआ हो, उसी के अनुलक्षून जीव के प्रदेश संकोचित या विस्तृत होते हैं। जीव का स्वभाव शरीर-परिमाण है, यह हम पहले कह आये । 'तत्त्वार्थ सूत्र' में दीपक का उदाहरण दिया है। क्या सचमुच आत्मा शरीर परिमाण है ? कारण अन्यत्र आत्मा के परिमाण के बारे में अनेक कल्पनाएँ उपलब्ध होती हैं। ६ Jain Education international भगवान महावीर से इन्द्रभूति गौतम पूछते हैं- "आत्मा चेतना लक्षण युक्त है, मगर उसका क्या रूप है, व्यापक या अनेकरूप है ।" आत्मा आकाश की भाँति अखण्ड, एक रूप, व्यापक नहीं है । जीव प्रति शरीर भिन्न है । आकाश का लक्षण सर्वत्र एक है। प्रति शरीर प्रति जीव में सुख-दुःख का अनुभव भिन्न-भिन्न है । एक सुखी होने पर सबको सुखी होना चाहिए और एक को दुःखी होने पर सबको दुःखी होना चाहिए, परन्तु ऐसा नहीं होता । सर्वगत्व आकाश की भाँति एक माना तो बंध, मोक्ष में अव्यवस्था उत्पन्न होगी । आत्मा व्यापक नहीं । न्याय, वैशेषिक, सांख्ययोग, मीमांसक आदि आत्मा को व्यापक मानते हैं। रामानुजाचार्य के अनुसार ब्रह्मात्मा व्यापक है और जीवात्मा अनुपरिमाण | चार्वाक आत्मा को अर्थात् उसी के मतानुसार चैतन्य को देह - परिमाण मानता है । उपनिषद में आत्मा को मानने की यही परम्परा है। कौषीतकी उपनिषद में आत्मा को देह प्रमाण बताते हुए कहा है कि, 'जिस प्रकार तलवार म्यान में व्याप्त है और अग्नि अपने कुंड में व्याप्त है, उसी प्रकार आत्मा शरीर में नख से लेकर शिखा तक व्याप्त है । तैत्तिरीय उपनिषद् में अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय आत्मा को शरीर प्रमाण बताया । वृहदारण्यक में उसे चावल या जौ समान बताया है । कठोपनिषद् १० तथा श्वेताश्वेतरोपनिषद् ११ में आत्मा को अंगुष्ठ परिमाण माना है । मैत्रेयी उपनिषद् १२ में अणुमात्र माना है। जैनों ने उसे देह परिमाण माना परन्तु केवलज्ञान की अपेक्षा से उसे व्यापक भी माना 13; अथवा समुद्घात की अवस्था में आत्मा के प्रदेशों का विस्तार होता है, उसकी अपेक्षा से उसे व्यापक माना है । संसारी आत्मा देह-परिमाण रूप है । १ समयसार : ५०-५१ । ३ मगवती पृ० १३८ । ५ भगवती सूत्र : १८७ ७ कौषीतकी उपनिषद : ४।२० । ६ बृहदारण्यक ५।६।१ । ११ १३ श्वेताश्वेतरोपनिषद : ३।१३ । ब्रह्मदेवकृत द्रव्यसंग्रह टी० : १० । २ ४ ६ तत्त्वार्थ सूत्र: ५।१; द्रव्य संग्रह : २३ । तत्त्वार्थ सूत्र : ५८ तत्त्वार्थसूत्र : ५ । १६ । तैत्तिरीय उपनिषद : १।२ । ८ १० कठोपनिषद २।२।१२ । १२ मैत्रेयी उपनिषद : ६।३८ । FSSX For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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