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आत्मतत्त्व : एक विवेचन | २२७
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अस्तित्व अज्ञात होता तो 'मैं नहीं हूँ' ऐसी प्रतीति होनी चाहिए। परन्तु होती नहीं। अहं प्रत्यय को ही आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान कहा है ।२
संशय स्वयं ज्ञान रूप है । ज्ञान आत्मा का गुण है । गुण के बिना गुणी नहीं रह सकता। कपड़ा और कपड़े का रंग, कपड़ा ग्रहण किया कि रंग का भी ग्रहण होगा । ज्ञान गुण देह का मानना व्यर्थ है, कारण देह मूर्त है। ज्ञान अमूर्त है, बोध रूप है । गुण अनुरूप गुणी में ही रह सकते हैं। जैसा गुणी होगा वैसा गुण होगा। विचारणीय यह है कि गुण और गुणी भिन्न है या अभिन्न ? न्याय-वैशेषिक दोनों में भेद मानते हैं। सांख्य ने गुण-गुणी में अभेद स्वीकार किया है तथा जैन और मीमांसक मत में गुण-गुणी में कथंचित् भेद कथंचित् अभेद माना है। गुण-गुणी से अमिन्न माना तो गुण दर्शन से गुणी का दर्शन मानना होगा; भिन्न माना तो घट-पटादिक का भी प्रत्यक्ष नहीं होगा, कारण घट-पटादि गुणी हैं । वे गुण के अभाव में ग्रहण करने योग्य नहीं होते। जहाँ गुण है वहाँ गुणी है। गुण प्रत्यक्ष है अत: गुणी को भी प्रत्यक्ष होना चाहिए। स्मरणादि गुण प्रत्यक्ष हैं उसी का गुणी आत्मा का प्रत्यक्ष ग्रहण होगा । यहाँ शंका होनी स्वाभाविक है कि शब्द का प्रत्यक्ष होता है, आकाश का नहीं। शब्द आकाश का गुण माना है । यह वैशेषिक का अनुभव अयुक्त है, कारण शब्द पौद्गलिक है, मूर्त है । अमूर्त का गुण मूर्त नहीं है, यह हम पहले कह आये। स्मरणादि को शरीर के गुण मानना इष्ट नहीं । खिड़की से हम देखते हैं परन्तु खिड़की देख नहीं सकती। उसे ज्ञान नहीं होता । शरीर खिड़की के सदृश्य है । आत्मा, ज्ञान, चेतन गुण युक्त है। प्रत्यक्ष प्रमाण से आत्मा का अस्तित्व सिद्ध हुआ कि आत्मा है, अत: अब यह जानना आवश्यक है कि उसका स्वरूप क्या है ? आत्मा का स्वरूप
आचार्य देवसेन ने आत्मा के ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, चेतनत्व, अमूर्तत्व ये छः गुण बतलाये हैं।' आचार्य नेमिचन्द्र ने जीव का उपयोगमयी, अमूर्तिक, कर्ता, स्वदेह परिमाण, भोक्ता, ऊर्ध्वगमन, सिद्ध और संसारी, इस तरह नौ प्रकार से कथन किया है।
जहाँ उपयोग है, वहाँ जीवत्व है, जहाँ उपयोग नहीं, वहाँ जीवत्व का अभाव है। उपयोग, ज्ञान जीव का ऐसा लक्षण है जो सभी जीवों में चाहे संसारी हों या सिद्ध, सब में पाया जाता है। ज्ञान भी जीव के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं है। 'ज्ञानं आत्मा' ऐसा 'समयसार' में कहा है । मूल स्वभाव ज्ञान है । ज्ञान गुण में ज्ञानावरणादि से विकृति भले ही आ जाये परन्तु सर्वथा ज्ञान गुण का नाश नहीं होता। ज्ञान पाँच माने हैं। प्रथम चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं और केवल ज्ञान क्षायिक है । क्षायोपशमिक अवस्था में कर्म का सद्भाव रहता है।
गुण दो प्रकार के हैं-(१) स्वाभाविक, और (२) वैभाविक । जल की शीतलता, अग्नि की उष्णता-ये उनके स्वाभाविक गुण हैं । अग्नि के निमित्त से जल में उष्णता आती है। यही उष्णता जल का विभाव गुण है। अग्नि हट गई तो उष्णता भी हट जाती है । पानी में आई हुई उष्णता पर के निमित्त से है । ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है।
छान्दोग्य उपनिषद में एक कथा आती है। असुरों में से विरोचन और देवों का प्रतिनिधि इन्द्र ये दोनों प्रजापति के पास आत्म-ज्ञान के लिये गये हैं । प्रजापति से पूछा आत्मस्वरूप क्या है ? प्रजापति ने जलमय शांत सरोवर में देखने को कहा और पूछा कि क्या देख रहे हो? उन्होंने उत्तर में कहा-हम अपने प्रतिबिम्ब को देख रहे हैं । बस ! यही आत्मा है । विरोचन का तो समाधान हुआ परन्तु इन्द्र चितित था।
यहीं से चितन शुरू हुआ । इन्द्रिय और शरीर का संचालक मन है। 'मन' को आत्मा माना । मन भी जब तक प्राण हैं तब तक कार्य करता है। प्राण-पखेरू उड़ जाने के बाद मन का चिंतन बन्द हो जाता है अतः मन नहीं,
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Yoga
१ ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य : १११।१ । २ न्यायमंजरी : पृ० ४२६; न्यायवार्तिक : पृ० ३४१ । ३ आलाप पद्धति, प्रथम गुच्छक : पृ० १६५-६६ । ४ द्रव्यसंग्रह : १२ । ५ छान्दोग्योपनिषद : ८1८ ।
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