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________________ प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मेवाड़ की देन | २१३ 000000000000 000000000000 JIRI MOUN .. .." UUTTTTTTTTTT नन्दबाबा गौ-बैल सहित प्रदर्शित हैं व दूसरी ओर यशोदा मैया दधि-मंथन कर रही हैं और पास खड़े कृष्ण माखन चुरा रहे हैं । दूसरे फलक में कुछ वणिक् 'तराजू' से सामान तोलते हुए दिखाई देते हैं-इस प्रकार की तराजू आज भी 'पंसारी' लोग प्रयोग में लाते हैं। तृतीय शिला पर 'लोहकार' धौंकनी द्वारा अग्नि प्रज्वलित कर लोहे के टुकड़े को गर्म कर रहा है और पास बैठा अन्य लोहार हाथ में हथौड़ा लिए उस लोहे के टुकड़े को एक 'ठिये' पर रखकर पीट रहा है। ये प्रस्तर फलक तत्कालीन मेवाड़ (१०वीं शती) के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन की आकर्षक झांकी प्रस्तुत करते हैं । मेवाड़ के सांस्कृतिक जीवन में १०वीं शती को स्वर्णिम-युग समझना अनुचित न होगा। यह पर्याप्त समृद्धिशाली समय था जबकि यहाँ बहुत से देवभवनों का निर्माण हुआ और नये-नये अभिप्राय शिल्पियों के माध्यम से कला में अभिव्यक्त किये गये । उदयपुर जिले के कई मंदिरों का उल्लेख किया ही जा चुका है । उदयपुर नगर से केवल १३ मील दूरस्थ व गोगुन्दा रोड़ पर 'ईसवाल' का विष्णु-मंदिर पञ्चायतनशैली का है। मध्यवर्ती मंदिर के बाह्य भागों पर जड़ी दिक्पाल प्रतिमाएं प्राचीन परम्परानुसार द्विबाहु हैं। प्रवेश करते समय दाहिनी ओर गणेश-मंदिर है व उसके सामने कुबेर का । पीछे सूर्य व देवी के लघु मन्दिर बनाकर 'पंचायतन' भाव को पूरा किया गया ।। ईसवाल से आगे खमणोर रोड पर जाकर, खमणोर से ३ मील दूर 'ऊनवास' का पिप्पलाद माता का मंदिर संवत् १०१६ में बना था-सम्भवतः गुहिल अल्लट के राज्यकाल में । निज मंदिर के पीछे प्रधान ताक में गौरी-पार्वती की मूर्ति जड़ी है। यह बहुत साधारण-सा दुर्गाभवन है-यहाँ दिक्पाल व सुरसुन्दरी प्रतिमाओं का सर्वथा अभाव है। उदयपुर-कैलाशपुरी-नाथद्वारा रोड़ पर उदयपुर से १३ मील दूरस्थ कैलाशपुरी अर्थात् श्री एकलिंगजी के निजमंदिर से ऊपर की पहाड़ी पर विक्रम संवत् १०२८ का बना लकुलोश-मंदिर भारतीय स्थापत्य की महत्त्वपूर्ण निधि है । यह शिलालेख लकुलीश सम्प्रदाय के इतिहास की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण है। निजमंदिर के गर्भगृह में काले पत्थर की बनी पुरुषाकार लकुलीश मूर्ति शिव को ऊर्ध्वरेतस् स्वरूप में प्रस्तुत करती है। प्रवेश के बांयी ओर शिलालेख जड़ा है व दूसरी ओर की ताक में शारदा-सरस्वती की भव्य प्रतिमा । इसके नीचे चौकी पर एक पंक्ति का लगुलेख खुदा है। प्रस्तुत मंदिर के सभा-मण्डप के दोनों ओर वायु व धूप प्रवेश हेतु जालियों की व्यवस्था की गई है, परन्तु समूचा जंघाभाग व पार्श्वभाग सर्वथा मूर्ति विहीन है- यहाँ मूलत: किसी भी प्रकार की सुरसुन्दरी या दिक्पाल मूर्तियाँ नहीं जड़ी गयी थीं। अतः १० वीं शती के स्थापत्य की दृष्टि से यह देवभवन भारतीय मध्ययुगीन कला की एक महत्त्वपूर्ण देन है। कैलाशपुरी के पास ही, एक मील की दूरी पर, नागदा ग्राम के प्राचीन मंदिर के अवशेष भी इस सन्दर्भ में विशेषरूपेण उल्लेखनीय हैं। यह स्थान ७वीं शती में वैष्णव सम्प्रदाय का केन्द्र था जैसा कि इस स्थान से प्राप्त संवत् ७१८ के शिलालेख द्वारा आभास होता है। संवत् १०८३ के अन्यलेख में भी इस स्थान का नाम 'नागह्रद' अंकित है। नागट्टा के तालाब के किनारे पर एक ओर बड़े चबूतरे पर दो बड़े मंदिर बने हैं जिन्हें सास-बहू मंदिर नाम से पुकारा जाता है । इन दोनों ही मंदिरों के गर्भगृह के बाहर ताकों में ब्रह्मा विष्णु व शिव की प्रतिमाएँ जड़ी हैं-दोनों ही के पीछे प्रधान जंघा के ऊपर बलराम मूर्ति भागवत-भाव की पुष्टि करते हैं और इसी शृंखला में बाजू की एक ओर दाशरथिराम व दूसरी ओर परशुराम की लघु प्रतिमाएँ जड़ी हैं । तक्षणकार ने राम भाव (संकर्षण बलराम-दशरथपुत्र राम, परशुराम) को प्रधानता दी है। मूर्ति-विज्ञान की दृष्टि से ये दोनों प्रधान मन्दिर व पास की लघुदेवकुलिकाएँ बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं इनके में एक पृथक् पुस्तक लिखी जा सकती है। यहाँ संक्षेप में कुछ ही विलक्षण मूर्तियों का उल्लेख सम्भव होगा । सास-बहू मंदिर के बीच पीछे की ओर एक लघु मन्दिर के पीछे की ताक में आसनस्थ देव प्रतिमा में शिव व सूर्य के एक रूप को दर्शाया गया है-इमे 'मार्तण्ड भैरव' की संज्ञा दी जानी चाहिए । चतुर्बाहु एवं आसनस्थ देव ने छाती पर सूर्य का कवच पहन रक्खा है, ऊपर के हाथों में धारण किए गए आयुध (शूल व खट्वांग) शिव के प्रतीक हैं व नीचे के दोनों हाथों में 'कमल' सूर्य के । देवता के सिर पर मुकुट सूर्य का सूचक है । इस आशय की स्वतन्त्र प्रतिमाएँ अभी तक अन्यत्र नहीं मिली हैं, यद्यपि 'मार्तण्ड भैरव' एक लघ्वाकृति एक अलंकृत शिलापट्ट पर खुदी है जो आजकल अमरीका के लॉस-एन्जल्स की प्रदर्शनी में रक्खी गई थी। वह भी राजस्थानी कलाकृति प्रतीत होती है । नागदा के सास-मंदिर में सभा-मण्डप के बाहर दाहिनी ओर एक मूर्ति गजेन्द्रमोक्ष संवाद की सूचक है । यहाँ विष्णु के अतिरिक्त पास में 'गज' प्रदर्शित है जिसे जलग्राह ने सताया था। राजस्थान की मूर्तिकला में यह अभिप्राय अन्य किसी स्थान पर 641 NMATIC
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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