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________________ २१२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 तथैव अन्य जिनाकृति मुकुट के बीच भी विद्यमान है। तक्षणकार ने इस अभिप्राय-विशेष की पुनरुक्ति कर इसे सर्वथा जैन-कुबेर बना दिया है। इसके अभाव में यह सर्वसाधारण कुबेर की मूर्ति मानी जाती। बांसी के प्राचीन स्थल के खण्डहर कई मील की दूरी तक बिखरे पड़े हैं जहाँ पर बड़ी-बड़ी ईंटें प्रायः मिलती रहती हैं। यह स्थलविशेष निश्चित ही गुप्तोत्तर-युग में पर्याप्त समृद्धिशाली रहा होगा । इसी प्रकार धुलेव-केसरियाजी से लगभग ८ मील दूरस्थ 'कल्याणपुर' का प्राचीन स्थल भी अवशेष प्रस्तुत करता है। इस स्थान से प्राप्त कई शैव प्रतिमाएं आजकल उदयपुर के महाराणा भूपाल कॉलिज में सुरक्षित की गई हैं । कल्याणपुर ग्राम के बाहर आधुनिक शिवालय के अन्दर एक 'चतुर्मुख शिवलिंग' पूजान्तर्गत है। यह भी पारेवा पत्थर का बना है और ७-८ वीं शती की मोहक कलाकृति है। यहाँ ऊपरी भाग के चारों ओर शिवमस्तक बने हैं और उनके नीचे ब्रह्मा-विष्णु-महेश व सूर्य की स्थानक मूर्तियाँ खुदी हैं । यहाँ सूर्य व उनके अनुचरों को ईरानी वेशभूषा में प्रस्तुत किया गया है। कल्याणपुर से प्राप्त एक विशाल शिवमस्तक प्रताप संग्रहालय, उदयपुर, की शोभा बढ़ा रहा है। यह मध्ययुगीन प्रतिमा यूरोप के संग्रहालयों में भारतीय-कला-प्रदर्शिनी में भी भेजी गयी थी। यहां शिव-कुण्डलों में लक्ष्मी व सरस्वती की आकृतियाँ इस अभिप्राय विशेष की दृष्टि से अनोखी हैं। यह मति भी पारेवा पत्थर की बनी है। कल्याणपुर से प्राप्त दो प्रस्तर प्रतिमाएं नाग-नागी एवं नागी अभिप्राय को अभिव्यक्त करती हैं जिनसे यह प्रतीत होता है कि उस समय मेवाड़ में नागपूजा को पर्याप्त मान्यता दी जाती थी। उदयपुर नगर के पास 'नागदा' नामक ग्राम आज तक विद्यमान है जिसका प्राचीन नाम 'नागह्रद' तो वि० संवत् ७१८ के शिलालेख में उपलब्ध है। पूर्वमध्ययुगीन धातुकला की दृष्टि से आयड़ ग्राम से प्राप्त कांस्य-मूर्ति बहुत उपयोगी है। यह लगभग पुरुषाकार है और जिन तीर्थंकर को ध्यानावस्था में प्रस्तुत करती है। अभी तक इतनी पुरानी धातु प्रतिमा मेवाड़ में अन्यत्र नहीं मिली है। आजकल यह आयड़ के पुरातत्त्व-संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है । मध्ययुग में आयड़ व्यापार एवं कला का भी एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। यह गुहिल नरेशों की राजधानी था। यहां कई प्राचीन मंदिर मेवाड़ की गुहिल कला व स्थापत्य के ज्वलन्त प्रतीक रूप में आज भी विद्यमान हैं। आयड़ की महासतियों के अहाते के बाहर 'गंगोद्भेद' कुण्ड का निर्माण गुहिल नृपति भर्तृ भट्ट के राज्य काल में संवत् १००१ में कराया गया। तत्सम्बन्धी शिलालेख आजकल उदयपुर के महाराजा भूपाल कॉलेज में सुरक्षित है। इस लेख में 'आदिवराह' नामक किसी व्यक्ति द्वारा आदिवराह-विष्णु-मंदिर में 'आदि-वराह-प्रतिमा' की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया गया है। कुण्ड के पास ही दो प्राचीन मंदिर हैं-बड़ा मंदिर बहुत ऊँचा है, इसके गर्भगृह के बाहर दाहिनी ओर शिव-लकुलीश-की मूर्ति जड़ी है । निज गंगोभेद कुण्ड के अन्दर ताकों में जड़ी हुई कई दर्जन प्राचीन प्रतिमाएँ मेवाड़ की मध्ययुगीन शिल्प का बखान करती हैं। इनमें से सप्ताश्वरथ में विराजमान सूर्य व चौदह हाथ वाले नृसिंह-वराह-विष्णु की दो भव्य मूर्तियाँ आयड़ संग्रहालय में सुरक्षित कर दी गई हैं । मेवाड़ में सूर्य-पूजा को भी पर्याप्त मान्यता प्राप्त थी। मध्ययुग में यहाँ कई सूर्य-मंदिरों का निर्माण हुआ था जिनमें से नांदेसमा (गोगुंदा के पास) का सूर्य-मंदिर तो प्रायः नष्ट हो चुका है परन्तु उदयपुर से १३ मील दूरस्थ व दारोली ग्राम के पास का सूर्य-मंदिर बहुत भव्य है-यह बेड़च नदी के बायें किनारे पर पूर्वोन्मुख होकर बना है। मंदिर के समा-मण्डप में सुरसुन्दरी-प्रतिमाएँ जुड़ी हैं व जंघा-भागों पर भी । गर्भगृह की प्रधान ताकों में सूर्य भगवान की कई प्रतिमाएँ आज भी सुरक्षित हैं। यह मध्ययुगीन सूर्य-मंदिरों की श्रेणी में सर्वोत्तम माना जा सकता है। यद्यपि मन्दिर के शिखर भाग का सर्वथा जीर्णोद्धार हो चुका है। आयड़ ग्राम के अन्दर कई जैन मन्दिर पूजान्तर्गत हैं। इनमें पुलिस स्टेशन के सामने व ग्राम के बीच के मन्दिर लगभग ११वीं शती की शिल्पकला का परिचय देते हैं । आयड़ पुलिस चौकी के पीछे खेत में विद्यमान मन्दिर भी उल्लेखनीय है-इसका शिखर तो प्रायः आधुनिक है-इसे 'मीरां-मन्दिर' कहा जाता है, परन्तु यह ठीक नहीं। इससे मीरां का कोई सम्बन्ध नहीं है क्योंकि यह ईसा की १०वीं शती में बना होगा। मन्दिर के पीछे प्रधान ताक में लक्ष्मीनारायण-मूर्ति तत्कालीन है और नीचे बंसी बजाते 'कीचक' की, जिसे भ्रमवश लोग कृष्ण समझकर मंदिर को मीरा से सम्बन्धित मान लेते हैं। यह अभिप्राय राजस्थान में सिरोही क्षेत्रान्तर्गत 'वर्माण' के स्तम्भ-शीर्ष द्वारा भी प्रस्तुत किया गया है । आयड़ के मीरां-मंदिर के जंघाभागों में दिक्पाल व सुर-सुन्दरी प्रतिमाओं के साथ कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण फलकों का विवेचन करना बहुत आवश्यक है क्योंकि ये मेवाड़ के मूर्ति-विज्ञान की दृष्टि से असाधारण हैं । एक स्थल पर VARTA AG nr Educationwinternational Force Dersonale Only www.lainelibrary.org
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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