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________________ पूज्य श्री मोतीलाल जी महाराज | १७५ ०००००००००००० 000000000000 जो कुछ चल रहा था, इससे पूज्यश्री प्रसन्न नहीं थे। वे मेवाड़ के मुनि और उपासकों में एकत्व देखना चाहते थे। पूज्यश्री ने अपने आपको कभी गलती में नहीं आने दिया। उन्होंने पारस्परिक भेदभाव को मिटाने के कई बार यत्न भी किये। ऐसा भी अवसर आया कि पूज्यश्री अपने समस्त महत्त्व को एक तरफ धरकर दूसरे के स्थान पर भी चले गये। बहुत लम्बे समय तक प्रयत्न को पूर्ण सफलता नहीं मिली। किन्तु 'जूणदा' में एक अवसर ऐसा भी आया मेवाड़ के मुनि-समाज का पारस्परिक विग्रह बड़े सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में समाप्त हो गया । इस अवसर पर पूज्यश्री ने जहाँ बड़ी शालीनता और आत्मीयता का परिचय दिया, वहाँ श्रद्धेय समादरणीय श्री मांगीलालजी महाराज साहब ने भी समुचित नम्रता तथा हार्दिकता का परिचय दिया। इस तरह मेवाड़ में जो एक अप्रिय प्रसंग चल रहा था, वह समाप्त हो गया। पूज्यश्री मुनि-समाज को एक सूत्र में पिरोकर समाज के आध्यात्मिक अभ्युदय में इस शक्ति का उपयोग करना चाहते थे, किन्तु जूणदा में जिस एकता का सूत्रपात हुआ, वह ऐक्य आशानुरूप प्रतिफल नहीं लाया । कारण जो भी रहे हों, उन्हें स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं । मेवाड़ का धार्मिक जगत उन परिस्थितियों से प्रायः परिचित है ही। ऐक्य उभय पक्षस्पर्शी सिद्धान्त है । एक पक्ष चाहकर भी ऐक्य का निर्माण नहीं कर सकता, जब तक अपर पक्ष सहयोग न दे । जहाँ तक पूज्यश्री का प्रश्न है, वे ऐक्य के लिए सदा-सर्वदा तैयार रहे। उसी का परिणाम था कि वर्षों का वैमनस्य एकबारगी तो धुल गया। पूज्यश्री सारे साधु-समाज में एकता चाहते थे। किन्तु साथ ही उनके कुछ आग्रह भी थे। उनका आग्रह किसी पद या सम्मान का नहीं था, कतिपय विशेष मान्यताओं को लेकर था। उन मान्यताओं को वे कहीं भी कसौटी पर चढ़ाने को तैयार थे । वे यह भी कहते कि कोई यदि मेरी मान्यता को असत्य सिद्ध कर दे तो मैं त्याग करने को मी तत्पर रहूँगा। किन्तु जीवन भर उन्हें कोई असत्य नहीं कर पाया और पूज्यश्री उन पर डटे रहे। ___स्थानकवासी जैन मुनियों का मारवाड़ सादड़ी में बृहद् सम्मेलन हुआ था। पूज्यश्री बड़ी हार्दिकता के साथ अपनी कई परम्पराओं और आचार्य पद का त्याग कर ऐक्य हेतु उसमें मिल गये । किन्तु संवत्सरी आदि की कुछ ऐसी मान्यताएँ थीं, जिन्हें उन्होंने तब भी नहीं छोड़ा था। इतना ही नहीं, श्रमण संघ ने ही बड़े स्नेह के साथ उन मान्यताओं को स्वीकार किया । यद्यपि श्रमण संघ का स्वीकार करना केवल ऐक्य हेतु था ऐक्य हेतु ही सही, किन्तु जो कूछ माना उसके लिए सचमुच संघ साधुवाद का पात्र है। पूज्यश्री श्रमण संघ में जाने-पहचाने महत्त्वपूर्ण सन्त-रत्न थे। बड़े ही सम्मान के साथ श्रमण संघ ने उस समय उन्हें 'मन्त्री' पद से विभूषित किया । इस पद पर पूज्यश्री अन्तिम समय तक बने रहे और कार्य करते रहे । इस बीच श्रमण संघ कई कठिनाइयों के दौर से गुजरा । कई सम्प्रदायें टूटकर पुनः अलग खड़ी हो गयीं। पूज्यश्री पर भी दबाव डाला गया। आग्रह किया गया अलग होने को । किन्तु पूज्यश्री ने कहा-'हाँ' करके 'ना' करना मेरा कार्य नहीं है। संघ में मिलते समय 'हाँ' कर दिया तो अब 'हाँ' ही रहेगा । मैं तो 'ना' नहीं कर सकता । जहाँ तक समस्याओं का प्रश्न है, पूज्यश्री उनको आपस में बैठकर सुलझाने को महत्त्व दिया करते थे। पूज्यश्री श्रावक समाज को एक बनाये रखने के हिमायती थे। यही कारण है कि उन्होंने जहाँ कहीं भी फूट देखी, अपने प्रभाव का प्रयोग कर उसे मिटा दिया। डूंगला, बम्बोरा, वल्लभनगर आदि पचासों गांवों के तड़े-तजाने पूज्यश्री ने उपदेश देकर श्रम करके मिटा दिये। पूज्यश्री गलत परम्पराओं को तोड़ने का कार्य भी किया करते थे। मेवाड़ के ही कुछ गाँवों में कुछ एक ऐसे परिवार थे, जिन्हें गांवों के व्यक्ति अछूत से भी बदतर समझते थे। लोगों की मान्यता थी कि उस परिवार में 'डाइन' का वास है । किन्तु ये बातें लगभग झूठी और अन्धविश्वासपूर्ण थीं। पूज्यश्री ऐसी बातों का घोर विरोध करते थे । परिणामस्वरूप कई परिवार, जो उस स्थिति में जी रहे थे, मुक्त हुए । Option
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
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