SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ 000000000000 000000000000 Mir S Jinni मसूदा में कुछ राजवर्गीय घरानों में पर्दे का इतना भयंकर बोलबाला था कि बहनें व्याख्यान तक में वजित थीं। उनका संसार केवल चार दिवारी तक सीमित था। किन्तु पूज्यश्री को जब यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने इस कुप्रथा का कड़ा विरोध किया। दूसरे ही दिन बहनों का व्याख्यान में आना प्रारम्भ हो गया। गुरुदेव सुधारवादी थे । केवल व्यावहारिक ही नहीं, आध्यात्मिक सुधार के वे बड़े पक्षधर थे और हजारों व्यक्तियों को इस तरह उन्होंने सुधारा भी। आकोला के यादवों में मदिरापान की प्रवृत्ति अधिक थी। पूज्यश्री ने उनमें से कई भाइयों को त्याग करा दिये। अहिंसा और जीवन-शुद्धि के क्षेत्र में पूज्यश्री को त्याग लेने वाला कोई न कोई सदस्य प्रायः मिल ही . जाता था। कई गांवों में तो अष्टमी, एकादशी आदि तिथियों को पूरे गांव में अगता रखने की पद्धतियाँ स्थापित की गयीं, जो आज भी चल रही हैं। पूज्यश्री का आध्यात्मिक अभ्युदय बड़ा प्रभावशाली था । नर ही नहीं, कहीं-कहीं तो पशुओं तक में पूज्यश्री के प्रति भक्ति देखी गई। मसूदा में पूज्यश्री जंगल की ओर पधार रहे थे । मार्ग में मसूदा दरबार का हाथी बँधा था। पूज्यश्री के पास आते ही हाथी नतमस्तक हो गया । सूंड को भूमि पर लम्बायमान करके उसने नमस्कार किया। सभी मुनिराज यह देखकर आश्चर्य कर रहे थे कि गजराज ने घास का एक पूला पूज्यश्री के पाँवों में रख दिया। पूज्यश्री ने कहागजराज ! यह हमारा खाद्य नहीं है ! हाथी ने उस पूले को लेकर अपने सिर पर चढ़ा लिया। पूज्यश्री मुड़कर आगे बढ़े तो गजराज उधर ही मुड़कर लगातार पूज्यश्री की तरफ देखता रहा। यह अद्भुत दृश्य था। मुनि तो देख ही रहे थे, साथ ही कई अन्य भाइयों ने भी यह दृश्य देखा। पूज्यश्री जिस परम्परा के मुनि हैं, उस परम्परा के लिए यह घटना कोई बड़े आश्चर्य की नहीं । क्योंकि इसी परम्परा के एक बहुत बड़े तपस्वी रोड़जी स्वामी को कभी उदयपुर में हाथी ने मोदक बहराया। सांड ने गुड़ का दान दिया। जिस परम्परा में पशुओं तक के प्रति ऐसा एकात्मभाव चला आया हो वहाँ हाथी वन्दन कर अभ्यर्थना करे तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं। पूज्यश्री स्थानकवासी जैन सिद्धान्त के प्रति बड़े आस्थावान तथा गौरवानुभूति से ओतप्रोत थे। किन्तु अन्य सम्प्रदायों के प्रति उनके मन में कोई द्वेष नहीं था। अपने व्याख्यानों में वे प्रायः कई धर्म ग्रन्थों से कथानक तथा उद्धरण दिया करते थे। वे अन्य धर्म सम्प्रदायों का कभी तिरस्कार नहीं करते थे। यथासम्भव सभी के प्रति मेल-जोल के विचारों का प्रचार करते थे। हाँ, यदि कोई उनकी मान्यता पर प्रहार करता तो वे शिष्ट प्रकार से उसका परिहार अवश्य करते । एक बार खेरोदा में पड़ोसी सम्प्रदाय के एक आचार्य का अपने साधु संघ के साथ आगमन हुआ । वहाँ उनके अनुयायियों का कोई निवास नहीं था। पूज्यश्री वहीं थे। उन्होंने दो श्रावकों को कहा कि आगत साधु संघ की सेवा का ध्यान करो । श्रावक वहाँ पहुंचकर आवश्यक आग्रह करने लगे। साधु संघ के आचार्य ने पूछा-तुम्हारे यहाँ कौन साधु है ? उपासकों ने योग्य उत्तर दे दिया। उन्होंने फिर पूछा-क्या मोतीलालजी कुछ पढ़े लिखे भी हैं ? उपासकों ने कहा-यह परीक्षा तो केवल आप ही कर सकते हैं । हम तो केवल आहारादि की पृच्छा करने आये हैं । उपासक पुनः पूज्यश्री के पास आये और सारा प्रसंग कह सुनाया। पूज्यश्री ने कहा-सद्भावना का यह पुरस्कार दिया। खैर ! अब यदि उन्होंने मेरे ज्ञान-ध्यान को जानने का प्रश्न ही कर दिया तो मैं भी चर्चा के लिए आग्रह करता हूँ। तुम जाकर उन्हें जानकारी दे दो। उपासकों ने जाकर कहा तो वे इसके लिए तैयार नहीं हुए और विहार कर दिया । पूज्यश्री भी उसी दिशा में बढ़ गये । वह चर्चाओं का युग था । पूज्यश्री चर्चा करने को आमादा थे। किन्तु तथाकथित आचार्य इसके लिए तैयार नहीं हुए । विहार-क्रम आगे से आगे चलता रहा । अन्ततोगत्वा सादड़ी में उन्हीं ONERBAR . . ... . . AL.. . . . . . 80 Cous . . N ollainen RSI NEWSIRRRIENTERING
SR No.012038
Book TitleAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamuni
PublisherAmbalalji Maharaj Abhinandan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1976
Total Pages678
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy