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पूज्य श्री मोतीलालजी महाराज | १७३
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एक बार गुरुदेव का होली चातुर्मास तिरपाल (मेवाड़) था। वहाँ पर रंगपंचमी को बीच बाजार में क्षत्रिय बकरों और पाड़ों का वध किया करते । वहाँ उन्हें पकाकर खाते भी। यह उनका कार्यक्रम कई वर्षों से चला आ रहा था।
बाजार में लगभग सारी बस्ती अहिंसक समाज की थी। उन्होंने सरे आम होने वाले इस कुकृत्य को रोकने का भरपूर यत्न किया, किन्तु सफलता नहीं मिली। उन्होंने सरकारी कार्यवाहियाँ भी की। कई बड़े-बड़े व्यक्तियों ने पूरी ताकत से इसे रोकने की चेष्टा की, परिणाम में केवल शून्य ही रहा ।
होली पर पूज्य श्री वहीं थे। रंगपंचमी का समय निकट था। व्याख्यान बाजार में ठीक उसी सार्वजनिक स्थान पर होता था, जहाँ यह कुकृत्य होने वाला था।
ज्यों-ज्यों पंचमी का समय निकट आता जा रहा था, त्यों-त्यों धर्मप्रिय जनता को उस क्रूर घटना की चिन्ता चिन्तित किये जा रही थी।
किसी ने कहा-पंचमी को यहाँ व्याख्यान नहीं हो पाएगा। पूज्य श्री ने पूछा-क्यों ? इस 'क्यों' के उत्तर में पूज्य श्री को सारी वास्तविक जानकारी मिल गई ।
पूज्य श्री ने सोचा-आज जिस स्थल पर अहिंसा, दया और करुणा के गीत गाये जा रहे हैं, कुछ ही दिनों में वहाँ मूक पशुओं की लाशें तड़पेंगी। खून के फव्वारे छूटेंगे । ओह ! यह तो बड़ी दुर्घटना होगी। पूज्य श्री ने दूसरे ही दिन अपने प्रवचन में करुणा की धारा बहाना प्रारम्भ कर दिया। जो भी अ-जैन प्रवचन सुन लेता उसके विचारों में भारी परिवर्तन हो जाता ! श्रोताओं में जैन कम अ-जैन ज्यादा होते थे। प्रवचनों का असर रंग लाने लगा।
पंचमी के एक दिन पूर्व समस्त क्षत्रिय समाज की एक खुली बैठक हुई और बहुत ही स्पष्ट वातावरण में उल्लासपूर्वक सभी ने एक मत से उस स्थान पर हिंसा बन्द करने का प्रस्ताव पारित कर दिया। भगवान राम और गुरुदेव श्री की जय बोलते हुए क्षत्रिय समाज ने गाँव के बीचोंबीच खेली जाने वाली खून की होली को सदा के लिए बन्द कर दी। पंचमी के दिन जहाँ खून की होली खेली जाती थी, उस स्थान पर समस्त क्षत्रिय और अन्य अहिंसक समाज ने मिलकर मिठाई बाँटी और रंग की होली खेलकर अपवित्रता के कलंक को सदा के लिए मिटा दिया।
पूज्य श्री के जीवन में ऐसी सफलताओं के कई अध्याय जुड़े हुए हैं।
राजकरेड़ा के राजाजी श्री अमरसिंहजी पूज्यश्री के उपदेशों से बड़े प्रभावित थे। चातुर्मास में उन्होंने कभी अपने हाथों में कोई शस्त्र धारण नहीं किया।
बराबर खङ्ग रखने वाले राजाजी चारों महीने अहिंसक बने रहे। उन्होंने कालाजी के स्थान पर जो हिंसा
सीध श्री राजा बहादुर श्री श्री अमरसिंह जी बंचना हेतु करेड़ा में श्री कालाजी के स्थान पर बोलमा वाले बकरा चढ़ाते थे । ७४ में श्री जैन बाईस सम्प्रदाय के पूज्य महाराज श्री एकलिंगदासजी का चातुर्मास था जिनके उपदेश से बलिदान नहीं चढ़ाना तय पाया और आम-गाम वालों ने पाली भी मांगी, जानवर बलिदान नहीं होने की दी। जब से ही बन्द है । ई हाल में वी सम्प्रदाय के पूज्य श्री मोतीलालजी का चातुर्मास है, फिर उपदेश हुआ। अब सबकी इच्छानुसार सुरे रूपाई जावे है । सो ई स्थान पर बलिदान नहीं करे। अमरा कर देवे। भोपा व आम लोग इसकी पाबन्दी रक्खें । लोपे जिसके हिन्दु को गाय मुसलमानों को सुअर का सोगन है। नोट-ई मुज्ब मुरे खुदा कर रूपा दी जावे । यह पट्टा यहाँ से आम को दिया जावे । २००२ का भादवा सुद ११ मंगलवार, जलजुलनी ग्यारस । दः मांगीलाल टुकल्या श्री हजूर का हुकम तूं पट्टो लिखीयो । यह पट्टा ठिकाना करेड़ा से इजरा हुआ। द: छगनलाल देपुरा कारकुन ।
ठि-करेड़ा २००२ का भादवा सुदी ११ ।
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